________________
अष्टाङ्गोग
259
है। वह ऐसा समझने लगता है कि उसका शरीर भी एक उपकरण मात्र है और जैसे उपकरणों का हस्तांतरण होता है उसी तरह शरीर-रूप उपकरण का स्वामी जीव भी एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में चला जाता है। यह क्रम उसके वर्तमान जीवन के पूर्व से चलता आ रहा था और आगे भी चलता रहेगा तब तक जबतक प्रकृति का बन्धन नहीं छूट जाता और उसकी अन्तरात्मा का परमात्मा में विलय नहीं हो जाता। 2. नियम- जहाँ यम व्यक्ति के सामाजिक आचरण की शुद्धता को लक्ष्य करता है वहाँ नियम उसके व्यक्तिगत आचरण की शुद्धता को लक्ष्य करता है। पतञ्जलि ने पाँच नियम बतायें हैं- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान। (क) शौच- शौच का अर्थ है शुद्धि। इसके अन्तर्गत शरीर, वस्त्र, आवास और भोजन की शुद्धि अभिप्रेत है। कायशुद्धि के क्रम में योगी को इस बात की प्रतीति होती है कि काया स्वभावतः अशुचि है- मूत्र, पुरीष, श्लेष्मा, स्वेद आदि घृणित वस्तुओं का घर है। इससे उसमें काया के प्रति और काया के स्वाभाविक आवेगों (जैसे कामचेष्टा) आदि के प्रति जुगुप्सा का भाव जगता है। दूसरे व्यक्ति के शरीर के प्रति भी उसके ऐसा ही जुगुप्सा का भाव जग जाता है। इससे उसकी वृत्तियाँ शारीरिक धरातल पर से उठकर आध्यात्मिक धरातल पर चली जाती हैं। वह देखता है कि पशु प्रेम जताने के लिए चाटते हैं, काटने का स्वांग करते हैं। प्रेम की यह अभिव्यक्ति उसे घटिया और घिनौनी लगने लगती है और वह करुणा, मैत्री आदि के द्वारा प्रेम की आध्यात्मिक अभिव्यक्ति की ओर सहज ही प्रवृत्त हो जाता है।
पतञ्जलि कहते हैं कि शुचिता से सत्त्वशुद्धि (अन्तरात्मा की शुद्धि) होती है, सौमनस्य होता है। सौमनस्य का अर्थ है मन की प्रसन्नता, मन में आस्था विश्वास का जगना। इस तरह मन के निष्कलुष (ईर्ष्यादि से रहित) होने से एकाग्रता होती है और एकाग्रता से इन्द्रियजय और आत्मशर्दन की योग्यता आती है। (ख) संतोष- तृष्णा के क्षय से संतोष का उदय होता है। संतोष अपरिमित सुख और शान्ति का जनक है। कहा गया है
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्। तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशी कलाम्।।
(महाभारत, शान्तिपर्व. 174-46) अर्थात इस लोक में जो काम्य वस्तुओं के उपभोग से शुरू होता है और स्वर्ग का जो महान् सुख है ये दोनों मिलकर भी उस सुख के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं हैं जो सुख तुष्णा के क्षय से अर्थात् संतोष से होता है। संतोष से योगी निश्चिन्त हो जाता है और योगमार्ग में स्थिर रहता है। (ग) तप- 'तप' शब्द 'तप्' धातु से निष्पन्न होता है। यह धातु तपने, जलने, दुःख झेलने के अर्थ में प्रयुक्त होती है। तप द्वारा शरीर मन और वचन का विशेष प्रकार से नियमन किया जाता है। निराहार रहना, निश्चल होकर खड़े रहना या बैठना, प्राणवायु का नियमन करना, ग्रीष्म में आतापना लेना, जाड़े में खुले शरीर खुले आसमान के नीचे ठंडक को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org