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स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
तब फिर आकाश की अनन्तता में खो जायेगा। कबीर ने कहा
'साँई इतना दीजिये जामें कुटुंब समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय ।।
परन्तु 'इतना' की सीमा बाँधने के प्रति मानो सावधान करते हुए उन्होंने कहारूखा सूखा खाई के ठंडा पानी पीव ।
देखि विरानी चूपड़ी मत ललचावे जीव ।।
यह विरानी चूपड़ी देखकर जी ललचाने की जो बात है वही परिग्रह की ओर ले जाती है और परिग्रह में प्रवृत्त होने पर स्पृहा और स्पर्धावश उचित-अनुचित का विवेक चला जाता है और व्यक्ति ठगी, धोखा, चोरी, अपहरण आदि में प्रवृत्त होता है। अतः अस्तेय का आचरण करने के लिए योगी इच्छा और स्पर्धा को वशीभूत करता है। (घ) ब्रह्मचर्य - पतञ्जलि के अनुसार मन, वचन और काया में मैथुन का वर्जन ब्रह्मचर्य है। जैनधर्म भी ब्रह्मचर्य का यही अर्थ किया गया है। परन्तु, महाव्रती जहाँ सर्वतोभावेन मैथुन का वर्जन करेगा वहाँ गृही के लिए मर्यादित मैथुन की स्वीकृति दी गई है। इस रूप में यह 'स्वदार संतोष' है अर्थात् गृही के लिए ब्रह्मचर्य व्रत का अर्थ है परकीया या सामान्या का वर्जन । पतञ्जलि ने भी यमों के दो स्तर किये हैं- 'जाति, देश, काल और समयावच्छिन्न' और महत् । इस पद्धति में स्वदार संतोष को समयावच्छिन्न ब्रह्मचर्य व्रत के रूप में स्वीकार किया जा सकता है क्योंकि विवाह भी समय (शर्त या पाबंदी) है। वस्तुतः विवाह के बन्धन का उद्देश्य है उद्दाम और बहुमुखी काम वासना को मर्यादित और एकनिष्ठ करना। इस रूप में यह 'अणु' या छोटे स्तर पर ब्रह्मचर्य व्रत ही है। चूंकि अमैथुन या मर्यादित मैथुन आत्मसंयम की आधारशिला के बिना टिक नहीं सकता। इसलिए, ब्रह्मचर्य का प्रवेशद्वार आत्मसंयम है।
जैनधर्म में ब्रह्मचर्य का महाव्रत के रूप में समावेश भगवान महावीर ने किया। तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने चातुर्याम (चार यम-अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह ) का उपदेश दिया था। विवेकी के लिए अपरिग्रह में ही ब्रह्मचर्य अन्तर्भुक्त हो जाता था क्योंकि स्त्री एक परिग्रह ही नहीं अपितु सभी परिग्रहों की जड़ है । परन्तु जब कुछ वक्रबुद्धि लोग अपरिग्रह में ब्रह्मचर्य की अव्याप्ति का आग्रह करने लगे तब भगवान महावीर को अलग से इसे विहित करना पड़ा।
(ङ) अपरिग्रह - अस्तेय और अपरिग्रह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहाँ अनुचित ढंग से वस्तु का अर्जन चौर्य है वहाँ अनावश्यक वस्तु का अर्जन और संग्रह परिग्रह है। यह भी एक प्रकार का चौर्य ही है। जो वस्तु जरूरतमंद के काम आ सकती थी उसे परिग्रही अनावश्यक रूप से अपने पास रख लेता है। अतएव वह समष्टि के प्रति दोषी है। परिग्रही को अपने परिग्रह के प्रति मोह हो जाता है और जैसे-जैसे उसका परिग्रह बढ़ता जाता है मोह भी गाढ़ से गाढ़तर होता जाता है। अनावश्यक परिग्रह नहीं करना और पूर्व अनावश्यक परिग्रह को क्रमशः न्यून से न्यूनतम कर लेना ही अपरिग्रह है। अपरिग्रह के आचरण से मोह क्षीण से क्षीणतर होता है और क्रमशः साधक का शरीर के प्रति मोह भी क्षीण हो जाता
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