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अष्टाङ्गोग
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ने अहिंसा के आचरण के दो विभाग किये हैं- सामान्य या ईषत् और दूसरा महत्। सामान्य स्तर पर जहाँ अहिंसा का आचरण जाति, देश, काल और समय (शर्त या पाबंदी) की सीमा में होगा वहाँ महत स्तर पर यह सार्वभौम होगा। जैन आचार में इसे ही अणु (छोटा) व्रत और महाव्रत कहा गया है। योगी को सार्वभौम अहिंसा का आचरण करना है। मनुष्य के लिए मांसाहार उपादेय नहीं है। अतएव योगी के लिए आहार हेतु हिंसा करने या कराने का प्रश्न ही नहीं उठता है। भय, लोभ या क्रोध के वश हिंसा योगी से हो नहीं सकती क्योंकि इन भावों को पूर्ण रूप से समाप्त कर ही और अपने हृदय में असीम मैत्रीभाव लेकर ही वह योगारूढ़ होता है। उसके लिए कोई शत्रु है ही नहीं। यदि कोई इसके प्रति शत्रुता का बर्ताव भी करे तो भी उसकी शिकायत उस व्यक्ति के प्रति नहीं वरन् उसकी कलुषित बुद्धि के प्रति होगी और वह उसके कलुष को मिटाकर उसके प्रति अपने मैत्री भाव का निर्वाह करना चाहेगा। यह कार्य कठिन तो है परन्तु असाध्य नहीं। आधुनिक युग में भी गाँधी ने इसे सिद्ध कर दिखा दिया। (ख) सत्य- सदाचार में सत्य का स्थान सर्वोपरि है। महात्मा गाँधी ने कहा है- 'सत्य ईश्वर है और ईश्वर सत्य है। मन-वचन और काया की क्रियाओं में सत्य का आचरण करने वाला परमात्मा के निकट पहुंच जाता है। कबीर ने कहा है
__ 'साँई से साँचा रहो, साँई साँच सुहाय।
साँचे को साँचा मिले साँचे माहि समाय।।' सत्य को साधने का मार्ग है अहिंसा या प्रेम। सत्य केवल यथार्थ कथन तक सीमित नहीं है, किसी को अश्लील बातें कहना, धोखा देना, निन्दा और पिशुनता करना या उपहास करना भी सत्य का व्याघात है। सम्राट अशोक ने अपने एक अभिलेख में कहा है कि सभी सम्प्रदायों का परस्पर मिलकर रहना अच्छा है (समवायो एव साधु)। फिर आगे है, उसका मूल है वचन का संयम (तस्स मूलं वचिगुति) तत्परतापूर्वक वाग्व्यापार का संरक्षण करना ही सत्य की साधना है। (ग) अस्तेय- भोग और परिग्रह के लिए स्पर्धा व्यक्ति को कदाचार की ओर ले जाती है। इसी से चोरी करने या दूसरे के स्वत्व को किसी अन्य रीति से अपना लेने की प्रवृत्ति होती है। जो भी अर्जन अन्याय या कदाचार से किया जाता है वह स्तेय या चौर्य है। कदाचार या अन्याय से परिग्रह करने वाला व्यक्ति जिस समाज में रहता है वह उस समाज के प्रति चौर्य कर्म करता है। योगी अपनी आवश्यकताओं को न्यूनतम कर लेता है। अन्यों के भोग और परिग्रह के प्रति उसकी कोई स्पृहा नहीं रहती। भोग और परिग्रह की इच्छा और स्पर्धा का कहीं कोई अन्त नहीं है- 'इच्छा हु आगास समा अणन्तिया। दूसरी ओर विगतस्पृह को परम सुख और शान्ति मिलती है
__ 'चाह गई, चिन्ता मिटी मनुआं बेपरवाह।
जाको कछु नहिं चाहिए वा ही साहंसाह।। (कबीरदास) किन्तु जीवन वसर करने के लिए कुछ तो चाहिए ही। परन्तु उस कुछ की सीमा बाँधने के प्रति व्यक्ति को सतर्क रहना चाहिए। यदि सीमा का वह उल्लंघन करने लगा
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