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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
दोनों को अन्तरंग साधना कहते हैं।
धारणा, ध्यान और समाधि योगी को आत्मा की गहराई में ले जाते हैं। योगी परमात्मा को प्राप्त करने के लिए आकाश की ओर नहीं देखता। वह जानता है कि प अन्तरात्मा के रूप में उसके भीतर विराजमान है। ये अन्तिम तीन सीढ़ियाँ आत्मा और परमात्मा में समवाय स्थापित करती हैं। इसलिए इन्हें 'अन्तरात्मा साधन' कहते हैं।
समाधि में ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञात एकाकार हो जाते हैं, द्रष्टा, दर्शन और दृष्ट का भेद मिट जाता है, मानों गायक, गीत और साज सब मिलकर एक हो गये। जब योगी को अन्तरात्मा की अनुभूति होती है जो परमात्मा का अंश है, महत् ज्वाला-पुञ्ज का एक स्फुल्लिंग है। यह योग साधना की चरमावस्था है। 1. यम - योग का प्रथम सोपान है। इसका अर्थ है संयम या नियंत्रण। योगसूत्र के अनुसार अहिंसा, सत्य, अस्तेय चोरी नहीं करना, दूसरे की कोई भी वस्तु अनधिकृत रूप से नहीं लेना ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का आचरण यम हैं। इस प्रकार के आचरण से व्यक्ति और समाज का कल्याण होता है; सामाजिक जीवन में सुख-शान्ति रहती है। इसके विपरीत हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार और परिग्रह की वृत्ति से अनाचार फैलता है और वैयक्तिक तथा सामाजिक जीवन अशान्त और दुःखद हो जाता है। हिंसा आदि की प्रवृत्तियाँ ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह आदि दुर्भावनाओं से उद्भूत होती हैं। अहिंसादि के आचरण से ये क्रमशः क्षीण होती हैं और साधक का मन स्वच्छ से स्वच्छत्तर होता जाता है और उसकी इन्द्रियाँ वश में आती हैं।
ये पांचों यम जैनधर्म में गृहस्थों के लिए अणुव्रत के रूप में (छोटे पैमाने पर या सीमित रूप में) और साधुओं के लिए महाव्रत या सार्वभौम व्रत के रूप में विहित किये गये हैं। पतञ्जलि भी इनका, जाति, देश, काल और समय (शर्त या पाबंदी) से बाधित लघ रूप और अन्य सार्वभौम महत् रूप मानते हैं। (क) अहिंसा- अहिंसा का शाब्दिक अर्थ हिंसा का वर्जन होता है अर्थात् किसी प्राणी को नहीं मारना या किसी प्रकार से नहीं सताना। परन्तु, इसकी परिणति विश्वप्रेम या समस्त जगत के प्रति मैत्रीभाव में होती है। यदि कोई व्यक्ति अपनी शारीरिक क्रिया द्वारा किसी जीव को क्षत नहीं करता, परन्तु उनके मन में वैरभाव रहता है, ईर्ष्या और द्वेष रहता है तो वह अहिंसक नहीं हो सकता। अतएव अहिंसा के आचरण के लिए वैरभाव का सर्वथा विसर्जन और मैत्रीभाव का अभ्यास आवश्यक है।
व्यक्ति हिंसा क्यों करते हैं? मांसाहारी भोजन के लिए जीवों का वध करते हैं या कराते हैं: भय के कारण भी जीव-हिंसा की जाती है। जैसे साँप से भय है. इसलिए लोग उसे मार देते हैं। स्वत्व या अधिकार की रक्षा के लिए भी हिंसा होती है। किसी का मान आहत होता है तो वह प्रतिशोध की भावना से हिंसा पर उतारू हो जाता है। आजीविका हेतु दैनन्दिन कार्य के प्रसंग में भी हिंसा हो सकती है। इस तरह हिंसा के कई प्रकार हो सकते हैं। इन सबों में सर्वाधिक गर्हित वह है जो रागद्वेष वश संकल्पपूर्वक की जाती है, इसका सर्वथा वर्जन किया जाना चाहिए। हिंसा के विविध प्रकारों को देखते हुए पतञ्जलि
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