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________________ अष्टाङ्गोग 255 योग की पात्रता के बारे में भगवद्गीता में कहा गया है कि न बहुत खाने वाले को योग हो सकता है और न एकान्त निराहारी को, न बहुत सोने वाले को और न सदा जाग्रत रहने वालों को ही। यह योग उसके लिए सुलभ है जो आहार विहार में और अन्य कर्मों में संयमित है जो निद्रा और जागति में ताल-मेल बनाये रखता है। भगवद्गीता अ. 6 (16-17) योगसूत्र के प्रथम पाद के दूसरे सूत्र में पतञ्जलि ने योग को 'चित्तवृत्ति का निरोध' कहा है। इसका तात्पर्य है चित्त के पर्यायों या अवस्थान्तरों का नियंत्रण या नियमन करना। चित्त में मन, बद्धि और अहंकार समाविष्ट रहते हैं। मन इन्द्रियों को विषयों में प्रवृत्त करता है, बुद्धि उचित-अनुचित का निर्णय करती है, अहंकार या 'मैं-पन, मैं कर्ता हँ. मैं भोक्ता हूँ' ऐसा भाव उत्पन्न करता है। 'वृत्ति' शब्द संस्कृति की 'वृत्' धातु से निष्पन्न है जिसका अर्थ होता है-घूमना, पलटना, चक्कर काटना, आगे बढ़ना, घटित होना आदि। तदनुसार वृत्ति का अर्थ परिणमन या अवस्थान्तरण, बहाव या प्रवाह हो सकता है। योग वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा परिणममान या अनियंत्रित भाव से प्रवहमान चित्त को नियंत्रित किया जाता है और तज्जनित ऊर्जा को अभीष्ट दिशा में लगाया जाता है। गतिशील या प्रवहमान चित्त का निरोध कोई सरल कार्य नहीं है। भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में अर्जुन ने कृष्ण से कहा- 'आपने मुझे योग का मार्ग तो बताया, परन्तु (चित्त की चंचलता के कारण) मुझे लगता है कि यह स्थायीरूप से उपलभ्य है नहीं। मन तो स्वभाव से चंचल, लोभकारी, प्रबल और हठी होता है। अतः उसका निग्रह चराचर जगत के प्रचालक वायु के निग्रह के समान दुष्कर है।' कृष्ण ने उत्तर दिया- निस्सन्देह मन चंचल है और उसका निग्रह दुष्कर है। परन्तु अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसका निग्रह सम्भव है। सचमुच असंयत व्यक्ति के लिए योग दुष्प्राप्य है। परन्तु जो वशी, यत्नशील है, वह उपायतः इसे सिद्ध कर सकता है। भगवद्गीता अ. 6 (34-35) योग के आठ अंग ___ योग सिद्ध करने के उपाय के रूप में पतञ्जलि ने योग के आठ अंग या आठ सीढ़ियाँ बतायी हैं ये हैं- (1) यम, (2) नियम, (3) आसन, (4) प्राणायाम, (5) प्रत्याहार, (6) धारणा, (7) ध्यान और (8) समाधि। __ यम और नियम राग-द्वेष जनित उद्वेगों को संयमित करते हैं और योगी को कल्याणकारी सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठित करते हैं। आसन से उसका शरीर स्वस्थ और सुदृढ होता है जिससे वह प्रकृति के साथ समवाय स्थापित कर सकता है। इससे शरीर के प्रति ममत्व क्रमशः घटता जाता है और योगी इसे आत्मा का अधिष्ठान मात्र मानने लगता है जिसे स्वस्थ और सुदृढ़ रखने का एक मात्र उद्देश्य है आध्यात्मिक विकास के लिए इसे उपादेय बनाना। ये प्रारम्भिक तीन सीढ़ियाँ 'बहिरंग साधना' कहलाती हैं। अगली दो सीढ़ियों, प्राणायाम और प्रत्याहार के द्वारा योगी श्वास-प्रश्वास का नियमन करता है और इन्द्रियों को उनके विषयों से पराक्ड.ख करता है। इनसे उसका मन वश में आता है। इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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