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________________ अष्टाङ्गोग डॉ. रामप्रकाश पोद्दार* 'योग' शब्द संस्कृत की 'युज्' धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ होता हैबाँधना, जोड़ना, जुए से लगना, उपयोग में लाना या नियुक्त करना। इसका लाक्षणिक अर्थ सम्मिलन या समागम भी हो सकता है। इस निबंध में हम जिस सन्दर्भ में योग की चर्चा करने जा रहे हैं इसमें इसका अर्थ है, 'मन, वचन और काया की शक्तियों को अभीष्ट के साधन में लगाना, बुद्धि, मन एवं आवेगों को संयमित कर ऐसा आध्यात्मिक संतुलन प्राप्त करना जिससे व्यक्ति का चैतन्य विविध परिस्थितियों में 'समभाव' में अवस्थित रहे। _ 'योग' छह भारतीय पारम्परिक दर्शनों में एक है। पतञ्जलि ने अपने योगसूत्र लत और व्यवस्थित किया है। इसमें कुल 185 सूत्र हैं। पारम्परिक भारतीय विचारधारा में समस्त दृश्य जगत का कारण परमात्मा है और जीवात्मा उसी का एक अंश है। इस सन्दर्भ में 'योग' उस पद्धति को कहा गया है जिसके द्वारा जीवात्मा का परमात्मा से सम्मिलन या समागम हो और सांसारिक आवागमन का बंधन छूट जाय। जो योगमार्ग का अनुसरण करता है उसे योगी कहते हैं। भगवद्गीता के छठे अध्याय में योग-मार्ग उसे कहा गया जो रागद्वेषजनित दु:ख से मुक्ति की ओर ले जाय "जिसके मन, बुद्धि और अहंकार संयमित होकर आत्मा में ही अवस्थित हो जाते हैं, जिसकी विषयों के प्रति स्पृहा छूट जाती है उस व्यक्ति को 'युक्त' अथवा योगावस्था को प्राप्त कहा जाता है। जैसे निवात स्थान में दीये की लौ कम्पित नहीं होती है, उसी तरह मन, बुद्धि और अहंकार को नियंत्रित कर आत्मा में अधिष्ठित योगी राग-द्वेष जनित आवेगों से उद्वेलित नहीं होता। योगाभ्यासजनित उपशम की अवस्था में चित्त प्रसन्न हो जाता है और आत्मा को आत्मा में देखता हुआ परम तोष को प्राप्त करता है। यह आत्यन्तिक और अतीन्द्रिय सुख की अवस्था है। इसमें चित्त तत्त्वतः निश्चल हो जाता है। इसे प्राप्त कर लेने पर अन्य सारी प्राप्तियाँ न्यून प्रतीत होती हैं। इस अवस्था में गुरुतम दुःख से भी चित्त विचलित नहीं होता। इसी को सारे दु:खों के संयोग से मुक्त करने वाला योग कहा गया है। ऐसे इस योग का निर्वेदरहित होकर अभ्यास करना चाहिए।" भगवद्गीता अ. 6 (18-23) * भण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीच्यूट, पूणे-4. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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