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________________ भारतीय तन्त्र-साधना और जैन धर्म-दर्शन 253 या विसर्जन मुद्रा, 45. परमेष्ठि मुद्रा 46. पार्श्व मुद्रा 47. अंजलि मुद्रा 48. कपाट मुद्रा 49. जिन मुद्रा 50. सौभाग्य मुद्रा 51. सबीज सौभाग्यं मुद्रा 52. योनि मुद्रा 53. गरुड़ मुद्रा 54. मुक्तासुक्ति मुद्रा 55. प्राणिपात मुद्रा 56. त्रिशिखा मुद्रा 57. श्रृंगार (भंग) मुद्रा 58. योगिनी मुद्रा 59. क्षेत्रपाल मुद्रा 60. उमरुक मुद्रा 61. अभय मुद्रा 62. वरद मुद्रा 63. अक्षसूत्र मुद्रा 64. बिम्ब मुद्रा 65. प्रवचन मुद्रा 66. मंगल मुद्रा 67. आसन मुद्रा 68. अंग मुद्रा 69. योग मुद्रा 70. पर्वत मुद्रा 71. विस्मय मुद्रा 72. नाद मुद्रा और 73. बिन्दु मुद्रा। मुद्राओं के संदर्भ में यह एक विस्तृत सूची है। जिनप्रभसूरि ने न केवल मुद्राओं के नामों का निर्देश किया है। अपितु यह भी बताया है कि किस प्रसंग में किस मुद्रा का उपयोग किया जाता है और उस मुद्रा की रचना किस प्रकार होती है। विस्तारभय से यहाँ हम ये मद्राएँ किस प्रकार बनायी जाती हैं। इसकी चर्चा हम नहीं कर रहे हैं। यंत्र और मण्डल तांत्रिक साधना में यंत्रों के साथ-साथ मण्डलों का भी उल्लेख पाया जाता है। मुद्रा और मंडल तांत्रिक साधनों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। जहाँ मुद्रा इष्ट देवता को प्रसन्न करने हेतु हाथ और अंगुलियों की सहायता से बनायी गयी विशिष्ट शारीरिक आकृतियाँ होती हैं वहीं मण्डल ध्यान हेतु चेतना में कल्पित विभिन्न आकृतियाँ होती हैं। वैसे यंत्र और मण्डल में बहुत अधिक अंतर नहीं है। किन्तु जहाँ यंत्र पूजा अथवा धारण के काम में आते हैं वहाँ मण्डल ध्यान के विषय होते हैं। मण्डलों की बाह्य आकृतियाँ बनाकर फिर उनपर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्र ने प्राणायाम की चर्चा के अन्तर्गत वायु की गतियों, मण्डल एवं उनके प्रकारों का निर्देश किया है। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म में प्रतिपादित तंत्र साधना और योग साधना पर अन्य भारतीय परम्पराओं का पर्याप्त प्रभाव रहा है। यद्यपि जैन आचार्यों ने तंत्र साधना और योग साधना के क्षेत्र में अन्य भारतीय परम्पराओं से बहुत कुछ ग्रहीत किया है फिर भी उनकी विशेषता यह रही है कि उन्होंने इसे अपनी मूलभूत निवृत्तिमार्गी मान्यताओं के अनुरूप बनाने का प्रयत्न किया है। यद्यपि कुछ क्षेत्रों में अन्धानुकरण भी हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप जैन धर्म दर्शन के निवृत्तिमार्गी स्वरूप पर कुछ खरोचें भी आई हैं। किन्तु यहाँ हमें यह स्मरण रखना होगा कि जैन तंत्र-साधना और योग-साधना का विकास अपनी सहवर्ती परम्पराओं के मध्य ही हुआ है, इसलिए उनके प्रभावों से पूर्णतः अछूता रहना सम्भव भी नहीं था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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