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भारतीय तन्त्र-साधना और जैन धर्म-दर्शन
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5. पंचांगुलिन्यास 6. कल्मषदहन 7. हृदयशुद्धि 8. दुःस्वप्न दुनिमित्ताशनिविद्युत्शत्रुभयादिरक्षा 9. सकलीकरण 10. पट या यंत्र पूजा 11. सजीवतापादन 12. दिग्बंधन 13. जप 14. आसनक्षोभण 15. क्षमाप्रार्थना 16. विसर्जन एवं हृदय में इष्ट स्थापन।।
ऋषिमंडलस्तव में मंत्र साधना विधान के निम्न आठ अंग माने गये हैं- 1. मंत्र 2. न्यास 3. ध्यान 4. साधन 5. जप 6. तप 7. अर्चा और 8. अन्तयोग।
श्री सागरचंद सूरि ने मंत्राधिराजकल्प में मंत्र साधना के निम्न छः ही अंग स्वीकार किये हैं- 1. आसन 2. सकलीकरण 3. मुद्रा 4. पूजा 5. जप और 6. होम।
इस प्रकार हम देखते हैं कि विभिन्न जैनाचार्यों ने पूजाविधान के अंगों के सम्बन्ध में अपने भिन्न-भिन्न मत प्रदर्शित किये हैं। इनमें संख्या, क्रम एवं मंत्र आदि के सम्बन्ध में भिन्नता होते हुए भी कोई मौलिक अन्तर परिलक्षित नहीं होता। सभी ने तंत्र साधना के पूर्व शरीरशुद्धि, वस्त्रशुद्धि, भूमिशुद्धि, मंत्र स्नान, कल्मषदहन, हृदयशुद्धि न्यास, सकलीकरण आदि का उल्लेख किया है। अन्य तांत्रिक परम्पराओं के समान ही जैनाचार्यों ने भी भूमिशुद्धि, शरीरशुद्धि, वस्त्रशुद्धि के बाह्य विधि-विधानों के साथ विभिन्न मंत्रों की भी योजना की है।
मुद्रा
तांत्रिक साधना में मुद्राओं का विशेष महत्व है। मुद्रा शब्द 'मुद्' धातु से निष्पन्न है जिसका अर्थ है- प्रसन्नता। अतः जो देवताओं को प्रसन्न कर देती है अथवा जिसे देखकर देवता प्रसन्न होते हैं उसे तंत्र शास्त्र में मुद्रा कहा जाता है। किन्तु तंत्रशास्त्र में भी 'मुद्रा' के अनेक अर्थ प्रचलित हैं। इनमें निम्न चार अर्थ मुख्य हैं- हठ योग के प्रसंग में मुद्रा का अर्थ है एक विशिष्ट प्रकार का आसन, जिसमें सम्पूर्ण शरीर क्रियाशील रहता है। पूजा के प्रसंग में मुद्रा का अर्थ हाथ और अंगुलियों से बनायी गई वे विशेष आकृतियाँ हैं, जिन्हें देखकर देवता प्रसन्न होते हैं। जैन और वैष्णव तंत्रों में मुद्रा से यही अर्थ अभिप्रेत है। तंत्र की सात्विक परम्परा में घृत से संयुक्त भुने हुए अन्न को भी मुद्रा कहा गया हैयह मुद्रा का तीसरा अर्थ है। जबकि वाममार्गी तान्त्रिकों की दृष्टि में मुद्रा का अर्थ वह नारी है जिससे तांत्रिक योगी अपने को सम्बंधित करता है- यह मुद्रा का चतुर्थ अर्थ है। पंचमकारों में मुद्रा इसी अर्थ में गृहीत है। किन्तु जैनों को मुद्रा का यह अर्थ कभी भी मान्य नहीं रहा है, वे तो मुद्रा के उपरोक्त दूसरे अर्थ को ही मान्य करते हैं। अभिधान राजेन्द्रकोश में मुद्रा शब्द के अन्तर्गत कहा गया है कि हाथ आदि अंगों का विन्यास विशेष मुद्रा कहा जाता है, यथा- योगमुद्रा, जिनमुद्रा, मुक्तासुक्तिमुद्रा आदि। जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश में कहा गया है कि देववन्दना, ध्यान या सामायिक करते समय मुख एवं शरीर के विभिन्न अंगों की जो आकृति बनाई जाती है उसे मुद्रा कहते हैं।
यद्यपि हिन्दू, बौद्ध एवं जैन तीनों ही परम्पराओं की तांत्रिक साधना एवं पूजा में मुद्रा का महत्वपूर्ण स्थान माना गया है, फिर भी मद्राओं की संख्या स्वरूप, नाम और परिभाषाओं को लेकर न केवल विभिन्न परम्पराओं में मतभेद पाया जाता है अपितु एक परम्परा में भी अनेक मान्यताएँ हैं। हिन्दु परम्परा में शारदातिलक (23/107-114) में नौ
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