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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
1. आधार चक्र 2. स्वाधिष्ठानचक्र 3. मणिपूरचक्र 4. अनाहत चक्र 5. विशुद्धि चक्र 6. ललनाचक्र 7. आज्ञा चक्र 8. ब्रह्मरन्ध्र चक्र (सोमचक्र) और 9. सुषुम्ना चक्र (ब्रह्मबिन्दुचक्र या सहस्रार चक्र)। सिंहतिलकसरि ने इन नौ चक्रों के शरीर में नौ स्थान भी बताये हैं उनके अनुसार आधारचक्र गुदा के मध्यभाग में, स्वाधिष्ठानचक्र लिंगमूल के समीप, मणिपूरचक्र नाभि में, अनाहतचक्र हृदय के समीप, विशुद्धिचक्र कण्ठ में, ललनाचक्र तालु में घटिका (कण्ठकूप) के समीप, आज्ञाचक्र कपाल में दोनों भौहों के बीच, ब्रह्मरन्ध्र चक्र मूर्धा के समीप और सुषुम्नाचक्र मस्तिष्क ऊर्ध्व भाग में स्थित है। प्रत्येक चक्र के कमलदलों की संख्या इस प्रकार बतायी गयी है- मूलाधार चक्र में 4 दल,
वाधिष्ठान में 6. मणिपुर में 10. अनाहत में 12, विशुद्धि में 16, ललना में 20, आज्ञा में 3, ब्रह्मरन्ध्र में 16 और ब्रह्मबिन्दु या सहस्रार चक्र में 6 दल होते हैं। कुछ आचार्यों के अनुसार ब्रह्मबिन्दु या सहस्रार चक्र में सहन (1000) दल होते हैं। सिंहतिलकसरि के अनुसार ललना चक्र में वाक् शक्ति (सरस्वती), आज्ञाचक्र में मन और ब्रह्मचक्र में चन्द्र
शीतल एवं निर्मल परमात्मशक्ति का निवास है। इनके दलों पर एक विशिष्ट व्यवस्था के अनुसार मातकाक्षरों का स्थान है। इनमें आधारचक्र रक्त, स्वाधिष्ठान अरुणाभ, मणिपूरचक्र श्वेत, अनाहतचक्र पीत, विशुद्धिचक्र श्वेत, ललना, आज्ञा और ब्रह्मचक्र रक्तवर्ण के और सहस्रार चक्र श्वेत रंग वाला है। इस प्रकार आचार्य तिलकसूरि ने इन चक्रों के नाम स्थान कमलदलों की संख्या, रंग, बीजाक्षर आदि की चर्चा तो की है किन्तु वह हिन्दू तंत्र से प्रभावित है। तांत्रिक साधना के विधि-विधान और जैन धर्म
आध्यात्मिक शक्ति के विकास एवं लौकिक उपलब्धियों के लिए मंत्र और तंत्र की साधना विधियों का उल्लेख अनेक जैनाचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में किया है। विशेष रूप से सिंहतिलक सूरि ने मंत्रराजरहस्य में, जिनप्रभसूरि ने विधिमार्गप्रपा में, मल्लिषेण सूरि ने भैरवपद्मावतीकल्प में, आचार्य कुन्थुसागर जी ने लघुविद्यानुवाद में तंत्र साधना की अनेक विधियों का उल्लेख किया है। विभिन्न आचार्यों द्वारा प्रतिपादित तंत्र साधना की विभिन्न विधियों में कहीं क्रमभेद है तो कहीं संख्याभेद है और कहीं-कहीं तो मंत्र भेद भी है। वस्तुतः तंत्र साधना विधियों को लेकर जैन आचार्यों में अनेक आम्नाय प्रचलित रहे हैं और उन आम्नायों के आधार पर साधना प्रक्रिया तथा मंत्र आदि को लेकर कुछ मतभेद देखे जाते हैं। फिर भी सामान्यरूप से उनमें कोई महत्वपूर्ण अन्तर परिलक्षित नहीं होता।
स्य में सिंहतिलकसरि ने तांत्रिक साधना के जिस विधान का उल्लेख किया है, उसके अन्तर्गत निम्न विधान आते हैं- 1. भूमिशुद्धि 2. कराङ्गन्यास 3. सकलीकरण 4. दिक्पाल आह्वान 5. हृदयशुद्धि 6. मंत्रस्नान 7. कल्मषदहन 8. पंचपरमेष्ठी स्थापन 9. आह्वान 10. स्थापना 11. सन्निधान 12. सन्निरोध 13. अवगुण्ठन 14. छोटिकाप्रदर्शन 15. अमृतीकरण 16. जाप 17. क्षोभण 18. क्षामन 19. विसर्जन और 20. स्तुति।
वर्द्धमान विद्याविधि में जिस मंत्र साधना विधि का उल्लेख है उसमें निम्न सोलह विधियों के उल्लेख हैं - 1. पंचाङ्गशौच 2. भूमिशुद्धि 3. मंत्रस्नान 4. वस्त्रशुद्धि
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