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भारतीय तन्त्र-साधना और जैन धर्म-दर्शन
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ब्रह्मारंध्र मधि आसणपूरी बाबू, अनहद नाद बजासी।। म्हारो ।।1।। जम नियम आसण जयकारी, प्राणायाम अभ्यासी। प्रत्याहार धारणा धारी, ध्यान समाधि समासी।। म्हारो ।।2।। मूल उत्तर गुण मुद्राधारी, परयंकासनचारी। रेचक पूरक कुंभककारी, मन इन्द्री जयकारी।। म्हारो।।3।। थिरता जोग जुगति अनुकारी, आपो आप विचारी।
आतम परमातम अनुसारी, सीझे काज सवारी।। म्हारो।।4।।
मेरा बाल-अल्पवयस्क (अल्पअभ्यासी) संन्यासी जो देह-शरीर रूप मठ में निवास करता है, वह ईडा, पिंगला नाड़ियों का मार्ग छोड़कर सुषुम्ना नाड़ी के घर आता है। आसन जमाकर सुषुम्ना नाड़ी द्वारा प्राणवायु को ब्रह्मरंध्र में ले जाकर अनहदनाद बजाता हुआ चित्तवृत्ति को उसमें लीन कर देता है।
यम-नियमों को पालन करने वाला, एक आसन से दीर्घकाल तक बैठने में समर्थ. प्राणायाम का अभ्यासी, प्रत्याहार, धारणा एवं ध्यान करने वाला साधक शीघ्र ही समाधि प्राप्त कर लेता है।
___वह बाल संन्यासी संयम के मूल और उत्तर गुणों रूपी मुद्रा को धारण कर तथा पर्यंकासन का अभ्यासी रेचक, परक और कंभक प्राणायाम क्रियाओं को करने वाला है। वह मन तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर योग साधना का अनुगमन करता हुआ जब परमात्म पद का अनुसरण करता है तो उसके सभी कार्य शीघ्र ही सिद्ध हो जाते हैं।
तांत्रिक साधना में कुण्डलिनी शक्ति के जागरण हेतु षट्चक्रों की साधना को प्रधानता दी जाती है। सामान्यतया हिन्दू तांत्रिक साधना पद्धति में षट्चक्र की अवधारणा ही प्रमुख रही है। किन्तु कुछ आचार्यों ने सप्तचक्रों और नवचक्रों की भी चर्चा की है। ये षट्चक्र हैं- 1. मूलाधार 2. स्वाधिष्ठान 3. मणिपूर 4. अनाहत 5. विशुद्धि और 6. आज्ञाचक्र। जिन आचार्यों ने सात चक्र माने हैं वे सहस्रार को सातवां चक्र और जिन्होंने नौ चक्र माने हैं उन्होंने उपर्युक्त सात चक्रों के साथ-साथ आज्ञाचक्र और सहस्रार के मध्य
में स्थित ललनाचक्र और ब्रह्मरन्ध्र में स्थित गरुचक्र की भी कल्पना की है। जैन तन्त्रसाधना में लगभग तेरहवीं शती से चक्र साधना के उल्लेख मिलते हैं, किन्तु वे हिन्दू तांत्रिक साधना और हठ योग की परम्परा से ही गृहीत हैं।
जैन परम्परा में हरिभद्र (8वीं शती) के योगदृष्टिसमुच्चय आदि योग संबंधी ग्रंथों में शुभचन्द्र (12वीं शती) के ज्ञानार्णव में एवं हेमचन्द्र (12वीं शती) के योगशास्त्र में भी हमें इन चक्रों का कोई भी उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। इस प्रकार षट्चक्र की अवधारणा 12वीं शताब्दी के पश्चात् ही जैन परम्परा में अस्तित्व में आयी। सर्वप्रथम आचार्य विबुधचन्द्र के शिष्य सिंहतिलकसूरि (13वीं शती) ने अपने 'परमेष्ठिविद्यायंत्रकल्प' नामक ग्रंथ में इन नव चक्रों का उल्लेख किया है। इससे यह सिद्ध भी होता है कि चक्रों की यह अवधारणा उन्होंने हिन्दू तंत्र से ही अवतरित की है क्योंकि उनके नाम आदि हिन्दू परम्परा के अनुरूप एवं बौद्ध परम्परा से भिन्न हैं। उनके अनुसार ये नवचक्र निम्न हैं
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