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स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
ध्येय के साथ एकत्व की अनुभूति करता है। अतः इस अवस्था को समरसीभाव भी कहा गया है।
इस तरह पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ तथा रूपातीत ध्यानों द्वारा क्रमशः भौतिक तत्वों या शरीर, मातृकापदों, सर्वज्ञदेव तथा सिद्धात्मा का चिंतन किया जाता है, क्योंकि स्थूल ध्येयों के बाद क्रमशः सूक्ष्म और सूक्ष्मतर ध्येय का ध्यान करने से मन में स्थिरता आती है और ध्याता एवं ध्येय में कोई अन्तर नहीं रह जाता।
जैन ग्रन्थों में कुण्डलिनी जागरण और षट्चक्र भेदन
जैन ग्रन्थों में कुण्डलिनी जागरण की साधना विधि का विशिष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। यहाँ तक कि तंत्र साधना से प्रभावित शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव एवं हेमचन्द्र के योगशास्त्र में भी इस संबंध में कोई निर्देश नहीं है। सर्वप्रथम सिंहतिलकसूरि (13वीं शती) में परमेष्ठिविद्यामंत्रकल्प में इसका निर्देश किया है। वे लिखते हैं कि
कुण्डलिनीतन्तुद्युतिसंभृतमूर्तीनि सर्वबीजानि । शान्त्यादि - संपदे स्युरित्येषो गुरुक्रमोऽस्माकम् ।। किं बीजैरिह शक्तिः कुण्डलिनी सर्वदेववर्णजनुः । रवि - चन्द्रान्तर्ध्याता भुक्त्यै च गुरुसारम् ॥ भ्रूमध्य-कण्ठ- हृदये नाभौ कोणे त्रयान्तरा ध्यातम् । परमेष्ठीपंचकमयं मायाबीयं महासिद्धयै ॥ श्रीविबुधचन्द्रगणभृच्छिष्यः श्रीसिंहतिलकसूरिरिमम् । परमेष्ठियमन्त्रकल्पं लिलेख साहलाददेवताक्त्या ।। परमेष्ठिविद्यायन्त्रकल्पः ।
यह कुण्डलिनी नाड़ी सभी बीजाक्षरों (मंत्र - बीजाक्षरों) की प्रकाशवान मूर्ति ही
है। वही शांति आदि सम्पदाओं का आधार है, ऐसी हमारी गुरु परम्परा या मान्यता या आम्नाय हैं। वस्तुतः इन मंत्र - बीजाक्षरों से भी क्या? जब कुण्डलिनी शक्ति सभी देव (देव - पदों) एवं वर्णाक्षरों (बीजाक्षरों) की जनक है तो फिर इसी की साधना करनी चाहिए। सूर्य नाड़ी एवं चन्द्र नाड़ी (ईडा पिंगला) में इन बीजाक्षरों का ध्यान करने से भोग और सुषुम्ना ध्यान करने से मुक्ति की प्राप्ति होती है, ऐसा गुरु के द्वारा के द्वारा बताया गया रहस्य है।
भ्रूमध्य अर्थात् आज्ञाचक्र, कण्ठ अर्थात् विशुद्धि चक्र, हृदय अर्थात् अनाहत चक्र, नाभि अर्थात् मणिपूरचक्र और कोणद्वय अर्थात् स्वाधिष्ठान और मूलाधारचक्र में पंच परमेष्ठि मायाबीज ह्रीं का ध्यान करने पर ही महासिद्धि की प्राप्ति होती है।
सिंहतिलक सूरि के अतिरिक्त श्वेताम्बर परम्परा में कुण्डलिनी शक्ति एवं ईडा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों की चर्चा करने वाले दूसरे आचार्य हैं आनन्दघन जी। अपने एक पद में इस संबंध में चर्चा करते हुए वे लिखते हैं कि
म्हारो बालूडो संन्यासी, देह देवल मठवासी ।
इडा पिंगला मारग तजि जोगी, सुखमना धरि आसी ।
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