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________________ भारतीय तन्त्र-साधना और जैन धर्म-दर्शन 'अहं' मंत्र पर केन्द्रित किया जाता है। अर्ह के स्वरूप में अपने को स्थिर करने पर साधक के अन्तरंग में एक ऐसी ज्योति प्रकट होती है, जो अक्षय तथा अतीन्द्रिय होती है। इसी ज्योति का नाम ही आत्मज्योति है तथा इसी से साधक को आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। प्रणव नामक ध्यान में अहं के स्थान पर 'ऊँ' पद का ध्यान किया जाता है। इस ध्यान का साधक योगी सर्वप्रथम हृदयकमल में स्थित कर्णिका में इस पद की स्थापना करता है तथा वचन - विलास की उत्पत्ति के अद्वितीय कारण, स्वर तथा व्यंजन से युक्त, पंच परमेष्ठी के वाचक, मूर्धा में स्थित चन्द्रकला से झरने वाले अमृत के रस से सराबोर महामंत्र प्रणव (ॐ) श्वास को निश्चल करके कुम्भक द्वारा ध्यान करता है। इस ध्यान की विशेषता यह है कि स्तम्भन कार्य में पीत, वशीकरण में लाल, क्षोभन में मूंगे के रंग के समान, विद्वेष में कृष्ण, कर्मनाशन अवस्था में चन्द्रमा की प्रभा के समान उज्ज्वल वर्ण का ध्यान किया जाता है। 247 ५ हेमचन्द्र के अनुसार पंचपरमेष्ठी नामक ध्यान में प्रथम हृदय में आठ पंखुड़ी वाले कमल की स्थापना करके कर्णिका के मध्य में सप्ताक्षर 'अरहंताणं' पद का चिन्तन किया • जाता है। तत्पश्चात् चारों दिशाओं के चार पत्रों पर क्रमशः 'णमो सिद्वाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं तथा णमो लोए सव्वसाहूणं' का ध्यान किया जाता है तथा चार विदिशाओं के पत्रों पर क्रमशः 'एसो पंच णमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं एवं पढमं हवइ मंगलं' का ध्यान किया जाता है। शुभचन्द्र के मतानुसार मध्य एवं पूर्वादि चार दिशाओं में 'णमो अरहंताणं' आदि का तथा चार विदिशाओं में क्रमशः 'सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्यग्ज्ञानाय नमः, सम्यग्चारित्रय नमः तथा सम्यक् तपसे नमः' का चिन्तन किया जाता है। इनके अतिरिक्त इन दोनों नमस्कार मंत्र से संबंधित अनेक ऐसे मंत्र या पदों का उल्लेख है जिनका ध्यान या जप करने से मनोव्याधियाँ शांत होती हैं, कष्टों का परिहार होता है तथा कर्मों का आस्रव रुक जाता है। इस प्रकार पदस्थ ध्यान में चित्त को स्थित करने के लिए मातृका पदों, बीजाक्षरों एवं मंत्राक्षरों का आलम्बन लिया जाता है। जैनाचार्यों ने यह तो माना है कि इस पदस्थ ध्यान से विभिन्न लब्धियाँ या अलौकिक शक्तियाँ भी प्राप्त होती हैं, किन्तु वे साधक को इनसे दूर रहने का ही निर्देश करते हैं, क्योंकि उनका लक्ष्य चित्त को शुद्ध और एकाग्र करना है न कि भौतिक उपलब्धियाँ प्राप्त करना। (3) रूपस्थ ध्यान- इस ध्यान में साधक अपने मन को अहं पर केन्द्रित करता है अर्थात् उनके गुणों एवं आदर्शों का चिन्तन करता है। अर्हत् के स्वरूप का अवलम्बन करके जो ध्यान किया जाता है वह ध्यान रूपस्थ ध्यान कहलाता है। रूपस्थ ध्यान का साधक रागद्वेषादि विकारों से रहित समस्त गुणों, प्रातिहार्यो एवं अतिशयों से युक्त जिनेन्द्रदेव का निर्मल चित्त से ध्यान करता है। वस्तुतः यह सगुण परमात्मा का ध्यान है। Jain Education International ( 4 ) रूपातीत ध्यान- रूपातीत ध्यान का अर्थ है रूप-रंग से अतीत, निरंजन, निराकार, ज्ञान स्वरूप एवं आनन्दस्वरूप सिद्ध परमात्मा का स्मरण करना। इस अवस्था में ध्याता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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