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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
नहीं बिगाड़ सकती हैं। डाकिनी-शाकिनियाँ, क्षुद्र योगिनियाँ, भूत, प्रेत, पिशाचादि दुष्ट प्राणी उसके तेज को सहन करने में समर्थ नहीं हैं। उसके तेज से वे त्रास को प्राप्त होते हैं। सिंह, सर्प आदि हिंसक जन्तु भी स्तम्भित होकर उससे दूर ही रहते हैं।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में (7/8-28) तांत्रिक परम्परा ही इन पांचों धारणाओं को स्वीकार करके भी उन्हें जैन धर्मदर्शन की आत्मविशुद्धि की अवधारणा से योजित किया है। क्योंकि इन धारणाओं के माध्यम से वे अष्टकर्मों के नाश के द्वारा शुद्ध आत्मदशा में अवस्थित होने का ही निर्देश करते हैं। किन्तु जब वे इसी पिण्डस्थ ध्यान की पांचों धारणाओं के फल की चर्चा करते हैं, तो स्पष्ट ऐसा लगता है कि वे तांत्रिक परम्परा से प्रभावित हैं, क्योंकि यहाँ उन्होंने उन्हीं भौतिक उपलब्धियों की चर्चा की है जो प्रकारान्तर से तांत्रिक साधना का उद्देश्य होती हैं। 2. पदस्थ ध्यान- जिस प्रकार पिण्डस्थ ध्यान में ध्येय भौतिक पिण्ड या शरीर होता है उसी प्रकार पदस्थ ध्यान में ध्यान का आलम्बन पवित्र मंत्राक्षर, बीजाक्षर या मातृकापद होते हैं। पदस्थ ध्यान का अर्थ है पदों अर्थात् स्वर और व्यंजनों की विशिष्ट रचनाओं को अपने ध्यान का आलम्बन या ध्येय बनाना। इस ध्यान के अन्तर्गत मातृकापदों अर्थात् स्वर-व्यंजनों पर ही ध्यान केन्द्रित किया जाता है। इस पदस्थ ध्यान में शरीर के तीन केन्द्रों अर्थात् नाभिकमल, हृदयकमल और मुखकमल की कल्पना की जाती है। इसमें नाभिकमल के रूप में सोलह पंखुड़ियों वाले कमल की कल्पना करके उसकी उन पंखुड़ियों पर सोलह स्वरों का स्थापना किया जाता है। हृदयकमल में कर्णिका सहित चौबीस पटल वाले कमल की कल्पना की जाती है और उसकी मध्यकर्णिका तथा चौबीस पटलों पर क्रमशः क, ख, ग, घ आदि 'क' वर्ग से 'प' तक के पच्चीस व्यंजनों की स्थापना करके उनका ध्यान किया जाता है। इसी प्रकार अष्ट पटल युक्त मुखकमल की कल्पना करके उसके उन अष्ट पटलों पर य, र, ल, व, श, स, ष, ह- इन आठ वर्गों का ध्यान किया जाता है। चूंकि सम्पूर्ण वाङमय इन्हीं मातकापदों से निर्मित है अतः इन मातकापदों का ध्यान करने से व्यक्ति सम्पूर्ण श्रुत का ज्ञाता हो जाता है (योगशास्त्र 8/1-5)।
ज्ञानार्णव के अनुसार मंत्र व वर्णों (स्वर-व्यंजनों) के ध्यान में समस्त पदों का स्वामी 'अहँ' माना गया है, जो रेफ कला एवं बिन्दु से युक्त अनाहत मंत्रराज है। इस ध्यान
वषय में कहा गया है कि साधक को एक सुवर्णमय कमल की कल्पना करके उसके मध्य में कर्णिका पर विराजमान, निष्कलंक, निर्मल चंद्र की किरणों जैसे आकाश एवं सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त 'अहँ' मंत्र का स्मरण करना चाहिए। तत्पश्चात् उसे मुखकमल में प्रवेश करते हुए, प्रवलयों में भ्रमण करते हुए, नेत्रपलकों पर स्फुरित होते हुए, भाल मण्डल में स्थिर होते हुए, तालुरन्ध्र से बाहर निकलते हुए, अमृत की वर्षा करते हुए, उज्ज्वल चन्द्रमा के साथ स्पर्धा करते हए, ज्योतिर्मण्डल में भ्रमण करते हए, आकाश में
ण करते हुए तथा मोक्ष के साथ मिलाप करते हुए कुम्भक के समान सम्पूर्ण अवयवों में व्याप्त होने का चिन्तन करना चाहिए।
इस प्रकार चित्त एवं शरीर में इसकी स्थापना द्वारा मन को क्रमशः सूक्ष्मता से
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