________________
भारतीय तन्त्र-साधना और जैन धर्म-दर्शन
245
यह विचार करना चाहिए कि उस क्षीरसागर के मध्य में जम्बूद्वीप के समान एक लाख योजन विस्तार वाला और एक हजार पंखुड़ियों वाला एक कमल है। उस कमल के मध्य में दैदीप्यमान स्वर्णिम आभा से युक्त मेरु पर्वत के समान एक लाख योजना ऊंची कर्णिका है, उस कर्णिका के ऊपर एक उज्ज्वल श्वेत सिंहासन है, उस सिंहासन पर आसीन होकर मेरी आत्मा अष्टकर्मों का समूल उच्छेदन कर रही है। (ख) आग्नेयीधारणा- ज्ञानार्णव और योगशास्त्र में इस धारणा के विषय में कहा गया है कि साधक अपने नाभि मण्डल में सोलह पंखुड़ियों वाले कमल का चिंतन करे। फिर उस कमल की कर्णिका पर अर्ह की, और प्रत्येक पंखुड़ी पर क्रमशः अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लु, लु, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:- इन सोलह स्वरों की स्थापना करे। इसके पश्चात् अपने हृदय भाग में अधोमुख आठ पंखुड़ियों वाले कमल का चिंतन करे और यह विचार करे कि ये आठ पंखुड़ियाँ अनुक्रम से 1. ज्ञानावरण 2. दर्शनावरण 3. वेदनीय 4. मोहनीय 5. आयुष्य 6. नाम, 7. गोत्र और 8. अन्तराय कर्मों की प्रतिनिधि हैं। इसके पश्चात यह चिंतन करे कि उस अर्ह से जो अग्नि शिखाएँ निकल रही हैं उनसे अष्टदल कमल की अष्टकर्मों की प्रतिनिधि ये पंखुड़ियाँ दग्ध हो रही हैं। अंत में यह चिन्तन करे कि अर्ह के ध्यान से उत्पन्न इन प्रबल अग्नि शिखाओं ने अष्टकर्म रूपी उस अधोमुख कमल को दग्ध कर दिया है उसके बाद तीन कोण वाले स्वस्तिक तथा अग्निबीज रेफ से युक्त वह्निपुर का चिंतन करना चाहिए और यह अनुभव करना चाहिए कि उस रेफ से निकलती हुई ज्वालाओं ने अष्टकर्मों के साथ-साथ मेरे इस शरीर को भी भस्मीभूत कर दिया है। इसके पश्चात् उस अग्नि के शांत होने की धारणा करें। (ग) वायवीय धारणा - आग्नेयी धारणा के पश्चात् साधक यह चिंतन करे कि समग्र लोक के पर्वतों को चलायमान कर देने में और समुद्रों को भी क्षुब्ध कर देने में समर्थ प्रचण्ड पवन बह रहा है और मेरे देह और आठ कर्मों के भस्मीभूत होने से जो राख बनी थी उसे यह प्रचण्ड पवन वेग से उड़ाकर ले जा रहा है। अंत में यह चिन्तन करना चाहिये कि उस राख को उड़ाकर यह पवन भी शांत हो रहा है। (घ) वारुणीय धारणा- वायवीय धारणा के पश्चात् साधक यह चिंतन करे कि अर्द्धचन्द्राकार कलाबिन्दु से युक्त वरुण बीज 'वं' से उत्पन्न अमृत के समान जल से युक्त मेघमालाओं से आकाश व्याप्त है और इन मेघमालाओं से जो जल बरस रहा है उससे शरीर
और कर्मों की जो भस्मी उडी थी उसे भी धो दिया है। (ङ) तत्ववती धारणा- उपर्युक्त चारों धाराणाओं के द्वारा सप्तधातुओं से बने शरीर और अष्ट कर्मों के समाप्त हो जाने पर साधक पूर्णचन्द्र के समान निर्मल एवं उज्ज्वल कांति वाले विशुद्ध आत्मतत्व का चिन्तन करे और यह अनुभव करे कि उस सिंहासन पर आसीन मेरी शुद्ध बुद्ध आत्मा अरहंत स्वरूप है।
इस प्रकार की ध्यान साधना के फल की चर्चा करते हुए आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि पिण्डस्थ ध्यान के रूप में इन पाँचों धारणाओं का अभ्यास करने वाले साधक का उच्चाटन, मारण, मोहन, स्तम्भन आदि संबंधी दुष्ट विद्यायें और मांत्रिक शक्तियाँ कछ भी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org