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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
मंत्रसिद्धि के विविध विधान हिन्दू तंत्र से प्रभावित हैं। मात्र इतना ही नहीं, जैन ध्यान साधना, जो श्रमणधारा की अपनी मौलिक साधना पद्धति है, पर भी हिन्दूतंत्र विशेष रूप से कौलतंत्र का प्रभाव आया है। विशेष रूप से यह प्रभाव ध्यान के आलम्बन या ध्येय को लेकर है।
जैन परम्परा में ध्यान-साधना के अन्तर्गत विविध आलम्बनों की चर्चा तो प्राचीन काल से थी, क्योंकि ध्यान साधना में चित्त की एकाग्रता के लिए प्रारम्भ में किसी न किसी विषय का आलम्बन तो लेना ही पड़ता है। प्रारम्भ में जैन परम्परा में आलम्बन के आधार पर धर्म-ध्यान को निम्न चार प्रकारों में विभाजित किया गया था- 1. आज्ञा विचय 2. अपाय विचय 3. विपाक विचय 4. संस्थान विचय।
इन चारों की विस्तृत चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। यह भी स्पष्ट है कि धर्म-ध्यान के ये चारों आलम्बन जैनों के अपने मौलिक हैं। किन्तु आगे चलकर इन आलम्बनों के संदर्भ में तंत्र का प्रभाव आया और लगभग ग्यारहवीं-बारहवीं शती से आलम्बन के आधार पर धर्म-ध्यान के नवीन चार भेद किये गये- 1. पिण्डस्थ 2. पदस्थ 3. रूपस्थ 4. रूपातीत।
यह स्पष्ट है कि धर्मध्यान के इन आलम्बनों की चर्चा मूलतः कौलतंत्रों से प्रभावित है, क्योंकि शुभचन्द्र (ग्यारहवीं शती) और हेमचन्द्र (बारहवीं शती) के पूर्व हमें किसी भी जैन ग्रंथ में इनकी चर्चा नहीं मिलती है। सर्वप्रथम शुभचन्द्र ने अपने ज्ञानार्णव में और हेमचन्द्र ने योगशास्त्र के अन्त में ध्यान के इन चारों आलम्बनों की चर्चा नहीं की है। मात्र यही नहीं, पिण्डस्थ ध्यान के अन्तर्गत धारणा के पाँच प्रकारों की जो चर्चा हुई है. वह हिन्द तंत्र से प्रभावित है। ये पाँच धारणाएँ हैं- 1. पार्थिवी 2. आग्नेयी 3. मारुति 4. वारुणी और 5. तत्ववती। वस्तुतः ध्यान के इन चार आलम्बनों में और पंच धारणाओं में ध्यान का विषय स्थूल से सूक्ष्म होता जाता है। आगे हम संक्षेप में इनकी चर्चा करेंगे। ध्यान के इन चारों आलम्बनों या ध्येयों और पाँचों धारणाओं को जैनों ने कौलतंत्र से गृहीत करके अपने ढंग से किस प्रकार समायोजित किया है, यह निम्न विवरण से स्पष्ट हो जायेगा। 1. पिण्डस्थ ध्यान- ध्यान साधना के लिए प्रारम्भ में कोई न कोई आलम्बन लेना आवश्यक होता है। साथ ही इस क्षेत्र में प्रगति के लिए यह भी आवश्यक होता है कि इन आलम्बनों का विषय क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म होता जाये। पिण्डस्थ ध्यान में आलम्बन का विषय सबसे स्थल होता है. पिण्ड शब्द के दो अर्थ हैं- शरीर अथवा भौतिक वस्तु। पिण्ड शब्द का अर्थ शरीर लेने पर पिण्डस्थ ध्यान का अर्थ होगा आन्तरिक शारीरिक गतिविधियों पर ध्यान केन्द्रित करना, जिसे हम शरीरप्रेक्षा भी कह सकते हैं, किन्तु पिण्ड का अर्थ भौतिक तत्व करने पर पार्थिवी आदि धारणायें भी पिण्डस्थ ध्यान के अन्तर्गत ही आ जाती हैं। ये धारणाएँ निम्न हैं(क) पार्थिवी धारणा- आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र के अनुसार पार्थिवी धारणा में साधक को मध्यलोक के समान एक अतिविस्तृत क्षीरसागर का चिंतन करना चाहिए। फिर
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