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भारतीय तन्त्र-साधना और जैन धर्म-दर्शन
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स्तोत्र पाठ, नामजप एवं मंत्रजप
तांत्रिक साधना में इष्ट देवता की प्रसन्नता के हेतु ध्यान के साथ-साथ स्तुति, नामसंकीर्तन और जप का भी महत्वपूर्ण स्थान है। इष्ट देवता की स्तुति एवं नामस्मरण के साथ-साथ विभिन्न मंत्रों की सिद्धि के लिए उन मंत्रों का या उनके अधिष्ठायक देवता का विभिन्न संख्याओं में जप करने के विधान भी हमको न केवल हिन्दू-तांत्रिक परम्परा के ग्रन्थों में, अपितु जैन परम्परा के तंत्र संबंधी ग्रन्थों में भी मिलते हैं। किन्तु मूल प्रश्न यह है कि क्या ध्यान-साधना के समान ही नामस्मरण या जप साधना की भी जैनों की अपनी कोई मौलिक परम्परा रही है। हमें जैनागमों में और 9वीं शती के पूर्व के जैन ग्रन्थों में जप-साधना और उससे संबंधित विधि-विधानों के कोई विशेष उल्लेख देखने को नहीं मिलते हैं। जो भी प्राचीन उल्लेख उपलब्ध हैं वे मात्र स्तुतियों से संबंधित हैं। प्राचीन आगमों में वीरस्तुति (वीरत्थुई), शक्रस्तव (नमोत्थुणं), चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स) और पंच नमस्कार से संबंधित संदर्भ ही मिलते हैं।
जैन परम्परा में नाम स्मरण एवं जप साधना के हमें जो उल्लेख प्राप्त होते हैं वे सभी प्रायः 9वीं शती के पश्चात् के हैं और मुख्यतः भक्तिमार्गी एवं तांत्रिक परम्परा के प्रभाव से ही विकसित हुए हैं। स्तुतियों से संबंधित संदर्भ आचारांग, सूत्रकृतांग, भगवती एवं आवश्यक सूत्र जैसे प्राचीन आगमों में उपलब्ध हैं। किन्तु नामस्मरण की परम्परा इसमें परवर्ती है। जिनसहस्रनाम का सर्वप्रथम उल्लेख जिनसेन (9वीं शती) के आदिपुराण में मिलता है। मंत्रों के जप संबंधी निर्देश तो इसकी अपेक्षा भी परवर्ती हैं। वे ईसा की 10वीं शताब्दी के बाद के ग्रंथों में ही उपलब्ध होते हैं। जैन ध्यान साधना पर तांत्रिक साधना का प्रभाव
ध्यान साधना श्रमण परम्परा की अपनी विशेषता है। उसमें ध्यान साधना का मुख्य प्रयोजन आत्म विशुद्धि अर्थात् चित्त को विकल्पों एवं विक्षोभों से मुक्त कर निर्विकल्प दशा या समाधि (समत्व) में स्थित करना रहा है। इसके विपरीत तांत्रिक साधना में ध्यान का प्रयोजन मंत्रसिद्धि और हठ योग में षट्चक्रों का भेदन कर कुण्डलिनी को जागृह करना है। यद्यपि उनमें भी ध्यान के द्वारा आत्मशांति या आत्मविशुद्धि की बात कही गई है, किन्तु यह उन पर श्रमण धारा के प्रभाव का ही परिणाम है क्योंकि वैदिक धारा के अथर्ववेद आदि प्राचीन ग्रन्थों में मंत्रसिद्धि का प्रयोजन लौकिक उपलब्धियों के हेत विशिष्ट शक्तियों की प्राप्ति ही था। वस्तुतः हिन्दू तांत्रिक साधना वैदिक और श्रमण परम्पराओं के समन्वय का परिणाम है। उसमें मारण, मोहन, वशीकरण, स्तम्भन आदि षट्कर्मों के लए मंत्र सिद्धि की जो चर्चा है वह वैदिक धारा का प्रभाव है क्योंकि उसके बीज अथर्ववेद आदि में भी हमें उपलब्ध होते हैं जबकि ध्यान, समाधि आदि के द्वारा आत्मविशुद्धि की जो चर्चा है वह निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा का प्रभाव है। किन्तु यह भी सत्य है कि सामान्य रूप से श्रमण धारा और विशेष रूप से जैनधारा पर भी हिन्दु तांत्रिक साधना और विशेष रूप से कौलतंत्र का प्रभाव आया है।
वस्तुतः जैन तंत्र में सकलीकरण, आत्मरक्षा, पूजाविधान और षट्कर्मों के लिए
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