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________________ 242 स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ इसी क्रम में तंत्र साधना से प्रभावित होकर जैनों ने न केवल प्रणव (ॐ) को नमस्कार मंत्र से निष्पन्न बताया अपितु प्रत्येक पद के वर्ण आदि का भी निर्धारण किया और आत्मरक्षा, सकलीकरण, अंग न्यास, ग्रह-नक्षत्र आदि की शांति के प्रसंग में भी नमस्कार मंत्र को योजित करने का प्रयत्न किया है। जैनाचार्यों ने नमस्कार मंत्र के विविध पदों के आधार पर विविध प्रयोजन संबंधी मंत्रों की रचना भी की जिसकी चर्चा सिंहनन्दि विरचित 'पंचनमस्कृति दीपिका' के नमस्कार संबंधी मंत्रों के प्रसंग में की गई है। नमस्कार मंत्र के पश्चात् जैन परम्परा में लब्धिधरों, ऋद्धिधरों के प्रति नमस्कार पूर्वक अनेक मंत्रों की रचना हुई। सर्वप्रथम तो इन पदों में सूरिमंत्र या गणधरवलय की रचना हुई जिसमें इन लब्धिधारियों को नमस्कार किया गया है। प्रत्येक लब्धिधारी पद में नमस्कार पूर्वक बीजाक्षरों को योजित करके अनेक मंत्र बने और उन मंत्रों की साधनाविधि तथा उनसे होने वाले फलों या उपलब्धियों की भी चर्चा की गयी। इसके पश्चात् 'लोगस्स' और 'नमोत्थुणं' (शक्रस्तव) जो मूलतः प्राचीन स्तुति परक प्राकृत रचनाएँ हैं, उनके आधार पर भी मंत्रों की रचनाएँ हुईं। इनमें इन स्तुति पाठों के अंशों के साथ बीजाक्षरों आदि को योजित करके मंत्र बनाए गए और इनकी साधना से भी विविध लौकिक उपलब्धियों की चर्चा की गयी। इन मंत्रों के साथ-साथ जब जैन परम्परा में 16 महाविद्याओं, 24 यक्षिणियों एवं 24 यक्षों, नवग्रह, दिक्पाल, क्षेत्रपाल आदि को देवमंडल में सम्मिलित कर लिया गया तो इनसे संबंधित मंत्रों की भी रचनाएँ हुईं, जो पूरी तरह अन्य तांत्रिक साधना पद्धतियों से प्रभावित हैं। जहाँ तक पंच परमेष्ठि, 24 तीर्थंकर और लब्धिधारियों से संबंधित मंत्रों का प्रश्न है वे मुख्यतया प्राकृत में रचे गए हैं। मात्र बीजाक्षरों अथवा फट् स्वाहा आदि के रूप में ही उनके साथ संस्कृत शब्दों की योजना की गयी। विद्यादेवियों, यक्षों, यक्षिणियों (शासनदेवियों) से संबंधित जो मंत्र निर्मित हुए हैं वे मुख्यतः संस्कृत भाषा में रचित हैं यद्यपि इनसे संबंधित कुछ मंत्र प्राकृत में भी मिलते हैं। वस्तुत यक्ष-यक्षी, दिक्पाल, क्षेत्रपाल (भैरव), नवग्रह, नक्षत्र आदि की अवधारणाओं का जैन परम्परा में भी अन्य परम्पराओं से संग्रह किया गया। उसके परिणामस्वरूप तत्संबंधी मंत्र भी अन्य परम्पराओं से आंशिक परिवर्तनों के साथ गृहीत कर लिए गए। पुनः इन देव-देवियों संबंधी जो भी मंत्र बने, उनमें लौकिक उपलब्धियों की ही कामना अधिक रही। यहाँ तक कि मारण, मोहन, उच्चाटन आदि षट्कर्मों से संबंधित मंत्र भी जैन परम्परा में मान्य हो गये जो उसकी निवृत्तिमार्गी अहिंसक परम्परा के विपरीत थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि मंत्र साधना के क्षेत्र में जैनों पर अन्य तांत्रिक परम्पराओं का प्रभाव है। विशेष रूप से षट्कर्म संबंधी मंत्रों में तो उन्होंने अविवेकपूर्वक अन्य परम्पराओं का अन्धानुकरण किया है, किन्तु अनेक प्रसंगों में उन्होंने स्वविवेक का परिचय ही दिया है और अपनी परम्परा के अनुरूप मंत्रों की रचना की ताकि सामान्यजन की श्रद्धा को जैन धर्म में स्थित रखा जा सके और जैन परम्परा की मूलभूत जीवन दृष्टि को भी सुरक्षित रखा जा सके। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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