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भारतीय तन्त्र-साधना और जैन धर्म-दर्शन
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पौदगलिक है। वस्तुतः मंत्र के उच्चारण से जो ध्वनि तरंगें प्रसत होती हैं उनमें ही मंत्रों की कार्य शक्ति निहित होती है।
ध्वनि तरंगों की क्या और कैसी प्रभावक शक्ति होती है, यह आज के वैज्ञानिक युग में अज्ञात नहीं है। वस्तुत: आज अधिकांश वैज्ञानिक उपकरणों का नियंत्रण तरंगों के माध्यम से ही होता है। मात्र इतना ही नहीं जैन दर्शन का तो यह भी मानना है कि मंत्र साधना में जो ध्यान के माध्यम से सूक्ष्म चिन्तन होता है वह विचार या चिन्तन ही शब्द रूप होता है और चाहे कितना ही सूक्ष्य क्यों न हो तरंग रूप होता है। वे सूक्ष्म ध्वनि की सूक्ष्मतम तरंगें भी कम्पनों को उत्पन्न कर अपना कार्य सिद्ध करती हैं। अतः जैन आचार्यों की यह मान्यता की मंत्र शक्ति पौद्गलिक शक्ति है, पूर्णतः वैज्ञानिक है। यद्यपि यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जैन दर्शनानुसार जिस प्रकार कर्म पुद्गल चेतना या चित्त शक्ति को प्रभावित करते हैं उसी प्रकार मंत्र भी देवों की चित्त शक्ति को प्रभावित करते हैं।
यह सत्य है कि प्रारम्भिक काल में जैन साधना में मंत्र साधना आध्यात्मिक विशुद्धि रूप ही मानी जाती थी। यहाँ यह समझ लेना चाहिये कि जैन परम्परा में जिस मंत्र साधना का प्रारम्भिक काल में विरोध किया गया वह मंत्र साधना मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि से संबंधित मंत्र साधनाएँ ही थीं। आत्म विशुद्धि के हेतु के रूप में मंत्र साधना का निषेध नहीं था।
प्राचीन काल में जैन परम्परा में पंच परमेष्ठी नमस्कार मंत्र को मंत्र रूप में मान लिया गया था। इस नमस्कार मंत्र को सर्वश्रेष्ठ मंगलदायक मंत्र माना जाता था और इन्हीं पाँच पदों के आधार पर सकलीकरण एवं ग्रह शांति की जाती थी। उसके पश्चात् परमावधि ज्ञानी, केवलज्ञानी, लब्धिधर आदि को उनमें सम्मिलित किया गया। इस प्रकार 48 पदात्मक सूरि मंत्र आदि का निर्माण हुआ। कालान्तर में चौबीस तीर्थंकरों और उनके यक्ष-यक्षियों से संबंधित मंत्रों का निर्माण हुआ और इन मंत्रों के माध्यम से सकलीकरण, ग्रह शांति आदि के कार्य सम्पन्न किये जाने लगे। यहाँ तक तो जैन मंत्र साधना से जैन धर्म का कुछ संबंध रहा, किन्तु आगे चलकर ज्वालामालिनी आदि देवियों, 64 योगिनियों, भैरव आदि से संबंधित मंत्र भी अस्तित्व में आये- जिन्हें हम हिन्दू तांत्रिक साधना का स्पष्ट प्रभाव कह सकते हैं। यह प्रभाव कैसे और किस रूप में है, आगे इसकी विस्तृत चर्चा करेंगे।
सर्वप्रथम तो जैनों ने अपने नमस्कार महामंत्र को ही मान्त्रिक स्वरूप प्रदान किया और इसी क्रम में न केवल नमस्कार मंत्र के पदों की संख्या में विकास हुआ अपितु प्रत्येक पद के साथ बीजाक्षर अर्थात् ॐ ऐं ह्रीं आदि योजित किए गये। इस प्रकार नमस्कार मंत्र को तंत्र परम्परा में प्रचलित बीजाक्षरों से समन्वित करके जैन आचार्यों ने उसे तंत्र-साधना की दृष्टि से मान्त्रिक स्वरूप प्रदान किया। यह स्पष्ट है कि नस्कार मंत्र के साथ बीजाक्षरों को योजित करने की यह परम्परा तंत्र से प्रभावित है। मात्र इतना ही नहीं इससे यह भी सिद्ध होता है कि जैन आचार्यों ने अन्य परम्पराओं में प्रचलित तांत्रिक साधना का मात्र अन्धानुकरण नहीं किया है अपितु अनेक स्थितियों में उसे विवेकपूर्वक अपनी परम्परा से योजित भी किया है।
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