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________________ 240 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ जाते हैं। जहाँ तक आसनों का प्रश्न है जैन परम्परा में वे ही आसन मान्य रहे हैं जिनके माध्यम से सुख पूर्वक ध्यान किया जा सकता है। जैन आगमों में हठयोग के क्लिष्ट आसनों की तो कोई भी चर्चा नहीं है किन्तु पद्मासन, गोदुहासन और खड्गासन के उल्लेख विपुल मात्रा में मिलते हैं। प्राणाधाम की जो चर्चा है वह हमें जैन आगमों में अल्प ही मिलती है किन्तु जैन आगमों में श्वासोच्छ्वास को देखने की बात विस्तार से अनेक स्थलों पर उल्लिखित है। जहाँ तक प्रत्याहार का प्रश्न है, वह इन्द्रिय-निग्रह एवं संवर के रूप में उसकी विस्तृत चर्चा उत्तराध्ययन आदि अनेक आगमों में मिलती है। जहाँ तक धारणा का प्रश्न है जैन ज्ञानमीमांसा में उसे प्रत्यक्ष का एक अंग मानकर विवेचित किया है। किसी सीमा तक धारणा को बौद्ध दर्शन के आष्टांगिक आर्य मार्ग में सम्यक् स्मृति के साथ जोड़ा जा सकता है। किसी सीमा तक धारणा को बौद्धदर्शन के आष्टाङ्गिक आर्य मार्ग में सम्यक स्मृति के साथ जोड़ा जा सकता है। ध्यान के सन्दर्भ में जैन आगमों में विस्तृत उल्लेख मिलता है। यहाँ उसकी विस्तृत चर्चा तो सम्भव नहीं है किन्तु इसी लेख के अन्तर्गत आगे हमने यह बताने का प्रयास किया है कि जैन ध्यान साधना पर पातञ्जल योगसूत्र के साथ-साथ कौलतन्त्र का भी प्रभाव आया है। पिष्टपेशण के भय से इस चर्चा को यहाँ विराम दे रहे हैं। जहाँ तक समाधि का प्रश्न है वह जैन परम्परा में योग निरोध के रूप में ही उल्लिखित है और जैन दर्शन के शुक्ल ध्यान के अन्तिम दो चरणों को पातञ्जल योग की समाधि के साथ देखा जा सकता है। इसी सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि आचार्य हेमचन्द्र के योग शास्त्र का तेरहवाँ अध्याय नाथपंथ से पूर्णतया प्रभावित लगता है। मंत्र साधना और जैन दष्टि मंत्र साधना तांत्रिक साधना अथवा योग-साधना का एक आवश्यक अंग है। जैन धर्म के प्राचीन ग्रंथों में तो मांत्रिक साधना का स्पष्ट निषेध किया गया था किन्तु परवर्ती काल में तांत्रिक परम्परा के प्रभाव से जैन धर्म में मान्त्रिक साधनाएँ स्वीकृत हो गई। फिर भी जहाँ तान्त्रिक साधना हो वहाँ मंत्र को आध्यात्मिक या दैवीय शक्ति से सम्पन्न भौतिक कल्याण का हेतु माना गया वहाँ जैन दर्शन में मंत्र और तंत्र को पौद्गलिक शक्ति से सम्पन्न भौतिक कल्याण का हेतु माना गया वहाँ जैन दर्शन ने मंत्र और तंत्र को पौद्गलिक शक्ति से युक्त भौतिक एवं आध्यात्मिक कल्याण का हेतु माना। धरसेन ने योनिप्राभृत में स्पष्ट रूप से यह कहा है कि मंत्र एवं तंत्र शक्तियों को पौद्गलिक शक्ति का ही एक विभाग मानना चाहिए (जोनि पाहुडे भणिदं-मंत-तंतसत्तीयो पोग्गलाणुभागोत्ति घेत्तव्वो)। इस प्रकार जहाँ तांत्रिक साधना में मंत्र को देव अधिष्ठित आत्मिक शक्ति कहा गया वहाँ जैन परम्परा में उसे एक पौद्गलिक शक्ति ही माना गया। जैनों के अनुसार मंत्र ध्वनि रूप होते हैं। ध्वनि मात्रिका पदों (स्वर-व्यंजनों) के माध्यम से अभिव्यक्त होती है। मंत्र ध्वनि रूप है और ध्वनि को जैन दर्शन में भाषावर्गणा के पुद्गलों से निर्मित एक पौद्गलिक संरचना माना गया है। अतः ध्वनि रूप मंत्र ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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