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भारतीय तन्त्र-साधना और जैन धर्म-दर्शन
20. जातिस्मरण, अवधिज्ञानादि दिव्यज्ञान और चारणविद्यादि लब्धियाँ (1.12 और 10.7 का भाष्य ) 21. केवलज्ञान (10.1
संयमजनित वैसी ही विभूतियाँ * (2.29 और 3.16 से आगे)
विवेकजन्य तारक ज्ञान (3.54)
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-योग, बौद्ध-योग और पातञ्जल योग अनेक सन्दर्भों में एक-दूसरे के अति निकट हैं। यद्यपि यहाँ यह कहना अति कठिन है कि जो समरूपताएँ परिलक्षित हो रही हैं उन्हें किस परम्परा से किसने गृहीत किया है, क्योंकि अनेक सन्दर्भों में विचार साम्य होते हुए भी भिन्न-भिन्न शब्दावलियों का प्रयोग हुआ। जैन- योग और पातञ्जल योग के पारस्परिक समन्वय के सूत्र हमें आचार्य हरिभद्र (लगभग 8 वीं शती) के काल से मिलने लगते हैं। आचार्य हरिभद्र ने सर्वप्रथम जैन-दर्शन में जो 'योग' शब्द की परिभाषा एवं व्याख्या चली आ रही थी उसे परिवर्तित किया और यह कहा कि जो मोक्ष से जोड़ता है, वह योग है। जैन परम्परा में मोक्ष की उपलब्धि हेतु योग निरोध से माना गया है। अतः यहाँ जैनदर्शन और योगदर्शन दोनों ही चित्त वृत्ति के निरोध को योग के रूप में स्वीकार करते हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि इस प्रकार से योग शब्द मोक्ष मार्ग के रूप में दोनों परम्पराओं में स्वीकृत हो गया। आचार्य हरिभद्र के योग सम्बन्धी चार ग्रन्थ उपलब्ध हैं- 1. योग बिन्दु, 2. योगशतक, 3. योगविंशिका और 4. योग दृष्टिसमुच्चय । इन चारों ग्रन्थों पर योगसूत्र और कौलतंत्र का पर्याप्त प्रभाव है, पतंजलि के अष्टांगयोग को हरिभद्र ने आठ योगदृष्टियों के रूप में विवेचित किया है। कौलतंत्र के आधार पर कुलयोगी, गोत्रयोगी आदि की चर्चा की है।
हिन्दू परम्परा के ग्रन्थ गीता में ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग और राजयोग के उल्लेख हमें स्पष्ट रूप से मिलते हैं। जैन परम्परा में ज्ञानयोग को सम्यक्ज्ञान के रूप में, कर्मयोग को सम्यक् चारित्र के रूप में, भक्तियोग को सम्यक्दर्शन के रूप में स्वीकार किया गया है। किन्तु जहाँ तक गीता में वर्णित राजयोग का प्रश्न है उसे किसी सीमा तक जैन परम्परा में सम्यक्तप के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, तप में स्वाध्याय, ध्यान, व्युत्सर्ग आदि की चर्चा है।
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पातञ्जल योगसूत्र में जो अष्टांगयोग की चर्चा है, वह किसी रूप में जैन आगमों में प्राचीन काल से ही उपलब्ध रही है। आचार्य आत्माराम जी ने 'जैन आगम और अष्टांगयोग' नाम से एक लघु पुस्तिका लिखी थी और उसमें यह बताया कि जैन परम्परा में ये आठ अंग किस रूप में पाए जाते हैं। यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि जैन परम्परा में जिन पाँच महाव्रतों का उल्लेख है वे ही योग दर्शन में पञ्च यम के रूप में मिलते हैं। इसी प्रकार योगसूत्र में वर्णित पञ्च नियम ही जैन परम्परा में प्रकारान्तर से उपलब्ध हो
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बौद्धदर्शन में इनके स्थान पर पाँच अभिज्ञाएँ हैं। देखें - धर्मसंग्रह, पृ. 4 और अभिधम्मसंगहो, परिच्छेद 9, पैरा 24.
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