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5. मिथ्यादर्शन आदि बन्ध के पाँच हेतु (81)
6. पाँचों में मिथ्यादर्शन की प्रधानता आत्मा और कर्म का विलक्षण सम्बन्ध ही बन्ध ( 8.2-3 )
7.
बन्ध ही शुभ-अशुभ हेय विपाक
का कारण
अनादि बन्ध मिथ्यादर्शन के अधीन
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10. कर्मों के अनुभागबन्ध का आधार कषाय (6.5)
स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
11. आस्रवनिरोध ही संवर (91) 12. गुप्ति समिति आदि और विविध तप आदि संवर के उपाय (9.2-3 )
13. अहिंसा आदि महाव्रत (7.1)
14. हिंसा आदि वृत्तियों में ऐहिक, पारलौकिक दोषों का दर्शन करके उन्हें रोकना (7.4) 15. हिंसा आदि दोर्षों में दुःखपने की ही भावना करके उन्हें त्यागना (7.5) 16. मैत्री आदि चार भावनाएँ (7.6) 17. पृथक्त्ववितर्कसविचार और
एकत्ववितर्कनिर्विचार आदि चार शुक्ल ध्यान (9.41-46 ) 18. निर्जरा और मोक्ष (9.3 और 10.3 )
19. ज्ञानसहित चारित्र ही निर्जरा और मोक्ष का हेतु (1.1)
1.
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3.
अविद्या आदि पाँच बन्धक क्लेश (2.3)
पाँचों में अविद्या की प्रधानता (2.4 ) पुरुष और प्रकृति का संयोग ही हेय दुःख का हेतु (2.17)
पुरुष व प्रकृति का संयोग ही हेय दुःख का हेतु (2.17)
अनादि संयोग अविद्या के अधीन (2.24)
10. कर्मों के विपाकजनन का मूल क्लेश
(2.13)
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विवेकी की दृष्टि में सम्पूर्ण कर्माशय दुःखरूप (2.15 )
16.
मैत्री आदि चार भावनाएँ (1.33) 17. सवितर्क, निर्वितर्क, सविचार और निर्विचाररूप चार संप्रज्ञात समाधियाँ(1.16 और 41, 44 ) आँशिकहान-बन्धोपरम और सर्वथाहान
चित्तवृत्तिनिरोध ही योग ( 1.2 ) यम, नियम आदि और अभ्यास, वैराग्य आदि योग के उपाय (1.12 से और 2.29 )
अहिंसा आदि सार्वभौम यम (2.30)
प्रतिपक्ष भावना द्वारा हिंसा आदि विक्कों को रोकना (2.33-34)
18.
(2.25)
19. सांगयोगसहित विवेकख्याति ही हान
का उपाय (2.26)
ये चार भावनाएँ बौद्ध परम्परा में 'ब्रह्मविहार' कहलाती हैं और उन पर बहुत जोर दिया गया है।
ध्यान के ये चार भेद बौद्धदर्शन में भी प्रसिद्ध हैं।
इसे बौद्धदर्शन में 'निर्वाण' कहते हैं, जो तीसरा आर्यसत्य है।
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