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भारतीय तन्त्र-साधना और जैन धर्म-दर्शन
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भौमिया जी एवं नाकोड़ा के नाकोड़ा भैरव सर्वाधिक उपासना के पात्र माने जाते हैं। लगभग प्रायः सभी जैन मन्दिरों में क्षेत्रपाल के रूप में भैरव की प्रतिमाएँ स्थापित हैं और इन देव-देवियों के जैन उपासक आज भी अपने भौतिक कल्याण के लिए मनौतियाँ माँगते हैं। यद्यपि एक विशुद्ध निवृत्तिमूलक धर्म में यह सब विकृतियाँ ही हैं किन्तु भारतीय तन्त्र के प्रभाव से उनका प्रवेश तो हुआ है। इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है क्योंकि मनुष्य विशुद्ध अध्यात्म या निवृत्तिमूलक आदर्शों पर जीवित नहीं रह सकता है। जैन योग और पातंजल योग : एक समन्वय
___यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि वे सभी भारतीय दार्शनिक परम्पराएँ जो चित्तविशुद्धि या आत्मविशुद्धि (समाधि) को अपना लक्ष्य बना कर चलती हैं, उन सभी में किसी न किसी में योग-साधना का स्थान रहा हुआ है। इस दृष्टि से यदि हम विचार करें तो मुख्य रूप से तीन वर्ग हमारे सामने आते हैं
1. पातञ्जल योग 2. बौद्ध योग 3. जैन योग
जहाँ तक पातञ्जल योग और जैन योग की तुलना एवं समन्वय का प्रश्न है सर्वप्रथम हमें यह समझ लेना होगा कि इन दोनों परम्पराओं में प्रारम्भिककाल में योग शब्द दो भिन्न अर्थों में ही प्रयुक्त होता था। जहाँ जैन परम्परा में योग शब्द का अर्थ मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति था जो आस्रव एवं बन्ध की हेतु थी वही पातञ्जल योग में योग शब्द को 'चित्तवृत्तियों के निरोध' के अर्थ में स्वीकार किया गया था, जो मुक्ति का हेतु थी। फिर भी योगसूत्र और तत्वार्थ सूत्र में ऐसे अनेक सन्दर्भ हैं जो उनकी संवादिता के सूचक हैं। पं. सुखलाल जी संघवी ने अपनी तत्वार्थ सूत्र की भूमिका (पृ. 55-56) में उन प्रसंगों की तुलना की है, जो जैन दर्शन और योग दर्शन की एक-दूसरे से निकटता को सूचित करती हैं। मैं यहाँ अति विस्तार में न जाकर केवल उस संक्षिप्त सूची को ही प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिससे जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन और योग दर्शन की निकटता को समझा जा सकता हैतत्वार्थसूत्र
योगदर्शन 1. कायिक, वाचिक, मानसिक
1. कर्माशय (2.12) प्रवृत्तिरूप आम्रव (6.1) 2. मानसिक आस्रव (8.1)
2. निरोध के विषयरूप में ली जाने
वाली चित्तवृत्तियाँ (1.6) सकषाय व अकषाय-यह दो प्रकार
क्लिष्ट और अक्लिष्ट दो प्रकार का का आस्रव (6.5)
कर्माशय (2.12) सुख-दुःखजनक शुभ व अशुभ
सुख-दु:खजनक पुण्य व अपुण्य आस्रव (6.3-4)
कर्माशय (2.14)
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