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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
उन तीर्थकर के शासन रक्षक देव उनका लौकिक और भौतिक मंगल करने में समर्थ हैं। जैन देवमण्डल में विभिन्न यक्ष-यक्षियों, विद्यादेवियों, क्षेत्रपालों आदि को जो स्थान मि उसका मुख्य लक्ष्य तो अपने अनुयायियों की श्रद्धा जैन धर्म में बनाए रखना ही था।
यही कारण था कि आठवीं-नौवीं शताब्दी में जैन आचार्यों ने अनेक विधि-विधानों को जैन साधना और पूजा-पद्धति का अंग बना दिया। यह सत्य है कि जैन-साधना में तांत्रिक साधना की अनेक विधाएँ यथा मंत्र, यंत्र, जप, पूजा, ध्यान आदि क्रमिक रूप से विकसित होती रही हैं, किन्तु यह सब अपनी सहवर्ती परम्पराओं के प्रभाव का परिणाम
थी, जिसे जैन धर्म के उपासकों की निष्ठा को जैन धर्म के बनाए रखने के लिए स्वीकार किया गया था। जैनधर्म में तांत्रिक साधना से सम्बंधित हिन्दू देव-मण्डल का प्रवेश
जहाँ तक जैन उपासना और पूजा पद्धति का प्रश्न है उस पर हिन्दू तान्त्रिक साधना का प्रभाव लगभग चौथी-पाँचवीं शताब्दी से ही मिलता है। यह सुस्पष्ट तथ्य था कि निवृत्ति मार्ग के प्रणेता वीतराग परमात्मा अपने उपासकों के भौतिक कल्याण में समर्थ नहीं थे जबकि मानव की यह एक स्वाभाविक कमजोरी है कि वह धर्म साधना और उपासना के माध्यम से भी अपने भौतिक कल्याण की अपेक्षा रखता है। यही कारण था कि जैन उपासना पद्धति में शासनरक्षक देव और देवियों के रूप में हिन्दू तान्त्रिक साधना के देव मण्डल के अनेक देवी-देवताओं को समाहित कर लिया गया। सर्वप्रथम विद्या देवियों के रूप में रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वज्रगश्रृंखला, वज्रांकुशी, अप्रतिचक्रा, गौरी, गान्धारी आदि और कालान्तर में शासन देवियों के रूप में काली, अम्बिका, पद्मावती, चक्रेश्वरी, सिद्धायिका. निर्वाणी, तारा आदि अनेक देवियाँ और ब्रह्मा, ईश्वर, गोमुख, धरणीन्द्र, कुबेर आदि यहाँ जैन देव मण्डल का अंग बन गए और उनकी उपासना और आराधना को अधिक महत्व दिया जाने लगा। इसी प्रकार नवग्रह, अष्टदिक्पाल भी जैन पूजा और उपासना के अंग बन गए। कालान्तर में गणेश का प्रवेश भी पार्श्वयक्ष के रूप में जैन धर्म का अङ्ग बन गया और उसे भी गणेश के समान ही गजमुख मानकर लोकमंगल का देवता मान लिया गया।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि हिन्दू देवमण्डल से सर्वप्रथम सरस्वती एवं लक्ष्मी ये दो देवियाँ जैन देव-मण्डल का अङ्ग बन गई। सरस्वती को श्रुत देवी के रूप में आराध्य बनाया गया। जैन ग्रन्थों में अनेक प्रसंगों पर श्रुत देवता के रूप में इसका उल्लेख पाया जाता है यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि आज विश्व में सरस्वती की जो प्राचीनतम (ईसा प्रथम शताब्दी) मथुरा की प्रतिमा उपलब्ध है वह जैन अभिलेख से युक्त जैन सरस्वती या श्रुतदेवी ही है। सरस्वती के पश्चात् जैन परम्परा में लक्ष्मी भी जैन देव-मण्डल का सदस्य बन गई। अनेक जैन मन्दिरों में गजलक्ष्मी की प्रतिमाएँ आज भी उपलब्ध होती
इसी प्रकार क्षेत्रपाल के रूप में भैरव और 64 योगिनियाँ भी जो कि तान्त्रिक देवता थे वे भी जैन देव मण्डल के सदस्य बन गए। जैनों में आज भी सम्मेदशिखर के
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