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भारतीय तन्त्र-साधना और जैन धर्म-दर्शन
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इसे लेकर उनकी साधना-विधियों में अन्तर भी आया।
जैनों ने यद्यपि निवृत्तिप्रधान जीवनदृष्टि का अनुसरण तो किया, किन्तु परवर्ती काल में उसमें प्रवृत्तिमार्ग के तत्व समाविष्ट होते रक्षण के प्रयत्नों का औचित्य स्वीकार किया गया, अपितु ऐहिक-भौतिक कल्याण के लिए भी तांत्रिक साधना की जाने लगी।
तांत्रिक साधना का मूल लक्ष्य इच्छा, वासना और विकल्पों से ऊपर उठकर निर्विकल्प चेतना में अवस्थिति है। योग साधना में इसे 'चित्तवृत्ति निरोध' कहा है तो जैन साधना ने इसे मोह एवं क्षोभ से रहित आत्मा की निर्विकल्प अवस्था माना। योग एवं जैनदर्शन दोनों का लक्ष्य मन को अमन बना देना, विकल्पों से ऊपर उठ जाना है। दूसरे शब्दों में कहें तो एक अनासक्त चेतना का विकास किन्तु यह अनासक्त चेतना की अवस्था या ज्ञाता, दृष्टा भाव में अवस्थिति कैसे हो? यह प्रश्न विवादास्पद ही रहा है। एक पक्ष का मानना यह है कि इच्छाओं एवं पूर्ति के माध्यम से हम उस अनासक्त निष्काम चेतना
अनभव कर सकते हैं। इस परम्परा का मानना यह है कि यदि इच्छाओं एवं वासनाओं को तृप्त कर दिया जाए तो जीवन के लिए करणीय या वाञ्छनीय कुछ भी नहीं रहेगा। इस प्रकार एक परम्परा विकसित हुई जो भोग के माध्यम से उस निर्विकल्प अवस्था को प्राप्त करने का लक्ष्य अपने सामने रखतीं हैं।
दूसरी ओर यह माना गया कि इच्छाओं एवं वासनाओं की पूर्ति से चित्त निर्विकल्प नहीं बनता है, क्योंकि प्रत्येक इच्छा या वासना अपनी सन्तुष्टि के साथ या तो किन्हीं नई इच्छाओं और वासनाओं को जन्म देती है या वही इच्छा एवं वासना पुनः भोग की इच्छा रखती है। अतः इच्छाओं एवं वासनाओं की पूर्ति के माध्यम से निर्विकल्प चित्त दशा की प्राप्ति संभव नहीं है। क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं, अतः उनकी पूर्ति सम्भव नहीं है। ये दमित इच्छाएँ चेतन या अचेतन स्तर पर चित्त को
भित करती रहती हैं। इस प्रकार इच्छाओं एवं वासनाओं से ऊपर उठने के दो विकल्प हैं एक उन इच्छाओं और वासनाओं को दबाकर निर्विकल्पता की दिशा में आगे बढ़ा जाये किन्तु कालान्तर में यह स्पष्ट हो गया है कि यह दमन का मार्ग भी इच्छाओं एवं वासनाओं को निर्मूल नहीं करता है अपितु उन्हें मात्र अचेतन में भेजने का प्रयास करता है। अचेतन में संकलित ये दमित इच्छाएँ एवं वासनाएँ चित्त को विक्षुब्ध ही करती रहती हैं। अत: यह माना गया कि इच्छाओं और वासनाओं से ऊपर उठकर चेतना की उपलब्धि इनके निरसन से ही सम्भव है। यह निरसन तभी संभव हो सकता है जब चेतन अन्तर्मुख होकर आत्मद्रष्टा बने तथा इच्छा और वासनाओं के रूप में चित्त को विक्षुब्ध करने वाली अवस्थाओं की निरर्थकता को समझे।
भारत में तांत्रिक साधना का जो विकास हुआ उसका मूल लक्ष्य तो अनासक्त निर्विकल्प चेतना की उपलब्धि ही था, किन्तु उसने कालान्तर में दो दिशाएँ ग्रहण कर लीं। एक प्रवृत्तिमूलक भोग मार्ग की और दूसरी निर्वृत्तिमूलक योग मार्ग की। जहाँ चार्वाक सम्प्रदाय सहित हिन्दूधर्म के वाममार्गी सम्प्रदाय, बौद्ध धर्म के वज्रयान ने भोग के माध्यम
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