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________________ 230 स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ से इच्छाओं एवं वासनाओं के निराकरण मार्ग को चुना, वहीं हिन्दू धर्म के ज्ञानमार्गी एवं संन्यासमार्गी सम्प्रदाय, बौद्ध धर्म के हीनयान सम्प्रदाय एवं जैन धर्म ने निर्वृत्तिमूलक योग मार्ग को स्वीकार किया। वैसे शैव एवं शाक्त तंत्रों में भी मूल लक्ष्य तो पशु को पशुपति अर्थात् इच्छाओं और वासनाओं का स्वामी बनाने की बात कही गयी, वही बात इन तीनों ही परम्पराओं ने मान्य रखी। फिर भी कालान्तर में प्रवृत्तिमूलक भोगमार्ग की परम्पराओं से वे भी नहीं बच सके। जैन धर्म में तंत्र साधना के दोनों ही पक्षों का प्रभाव देखा जाता है यद्यपि निर्वृत्तिमूलक संन्यास मार्ग की परम्परा का समर्थक होने के कारण उस पर यह दूसरा पक्ष हावी नहीं हो पाया, किन्तु इस निर्वृत्तिमूलक अवधारणा पर कहीं न कहीं प्रवृत्तिमूलक भोग मार्ग का प्रभाव तो आया ही है। यह प्रभाव कैसे एवं किस रूप में आया इसकी संक्षिप्त चर्चा यहाँ अपेक्षित है। क्या जैनधर्म जीवन का निषेध सिखाता है? सामान्यतया यह माना जाता है कि तंत्र की जीवनदृष्टि ऐहिक जीवन को सर्वथा वरेण्य मानती है, जबकि जैनों का जीवनदर्शन निषेधमूलक है। इस आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि जैन धर्म दर्शन तंत्र का विरोधी है, किन्तु जैन दर्शन के सम्बन्ध में यह एक भ्रान्त धारणा ही होगी। जैनों ने मानव जीवन को जीने के योग्य एवं सर्वथा वरेण्य माना है । उनके अनुसार मनुष्य जीवन ही तो एक ऐसा जीवन है जिसके माध्यम से व्यक्ति विमुक्ति के पथ पर आरूढ़ हो सकता है। इतना अवश्य है कि जैनों की दृष्टि में पाशविक शुद्ध स्वार्थी से परिपूर्ण, मात्र जैविक एषणाओं की पूर्ति में संलग्न जीवन न तो रक्षणीय है, न वरेण्य; किन्तु यह दृष्टि तो तंत्र की भी है, क्योंकि वह भी पशु अर्थात् पाशविक पक्ष का संहार कर पाश से मुक्त होने की बात करता है। जैनों के अनुसार जीवन उस समीप तक वरेण्य और रक्षणीय है जिस सीमा तक वह व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में सहायक होता है और अपने आध्यात्मिक विकास के माध्यम से लोकमंगल का सृजन करता है। प्रशस्त तांत्रिक साधना और जैन साधना दोनों में ही इस सम्बन्ध में सहमति देखी जाती है। वस्तुतः जीवन की एकान्त रूप से वरेण्यता और एकान्त रूप से जीवन का निषेध दोनों ही अवधारणाएँ उचित नहीं हैं। यही जैनों की जीवनदृष्टि है। वासनात्मक जीवन के निराकरण द्वारा आध्यात्मिक जीवन का विकास यही तंत्र और जैन दर्शन दोनों की जीवनदृष्टि है और इस अर्थ में वे दोनों विरोधी नहीं हैं, सहगामी हैं। फिर भी सामान्य अवधारणा यह है कि तंत्र दर्शन में ऐहिक जीवन को सर्वथा वरेण्य माना गया है। उसकी मान्यता है कि जीवन आनन्दपूर्वक जीने के लिए है। जैन धर्म में तप त्याग की जो महिमा गायी गई है, उसके आधार पर यह भ्रान्ति फैलाई जाती है कि जैन धर्म जीवन का निषेध सिखाता है। अतः यहाँ इस भ्रान्ति का निराकरण कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जैन धर्म में तप त्याग के गौरवगान का अर्थ शारीरिक एवं भौतिक जीवन की अस्वीकृति नहीं है। आध्यात्मिक मूल्यों की स्वीकृति का यह तात्पर्य नहीं है कि शारीरिक एवं भौतिक मूल्यों की पूर्णतया उपेक्षा की जाय । जैन धर्म के अनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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