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स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
की प्राप्ति सुनिश्चित है। यह पद ही मोक्ष सिद्धि का हेतु है। देव के अन्तर्गत सिद्ध भगवान भी आते हैं। अतः देवशास्त्र गुरु और सिद्ध भगवान की आराधना सामग्री ॐ पर ही अर्पित करते हैं। जब तीर्थंकर विशेष या सामूहिक तीर्थंकर मात्र की पूजन करें तो 'श्री' बीजाक्षर पर ही आठों द्रव्य अर्पित करें। 'श्री' बीजाक्षर श्रेय का प्रतीक कहा गया है। अतः जो श्रेय तीर्थंकर की आत्मा ने प्राप्त किया है वैसा ही श्रेय उनकी आराधना से मुझे प्राप्त हो। इस आकांक्षा की साकारता में हम 'श्री' बीजाक्षर को आत्मभूत करते हैं।
स्वस्तिक कल्याण का प्रतीक बीजाक्षर है। अतः व्रत निर्वाण भूमि, तीर्थ मंदिर आदि की आराधना से हमारा कल्याण होता है। इसलिए इन सभी की पूजाओं को द्रव्य क पर ही अर्पित करते हुए कल्याण की आकांक्षा साकार करते हैं।
थापना (ठोना) पर आठ पंखुड़ी का कमल बनाते हैं। सिद्धप्रभु के आठ गुण है। अतः उन गुणों की प्राप्ति हेतु आह्वानन स्थापना सन्निधिकरण के पुष्प ठोना पर अर्पित करते हैं। स्वस्तिक के नीचे जो आड़े में तीन बिन्दु रखे हैं- समस्त पूजायें करने के बाद जिस ग्राम / नगर में हम पूजा कर रहे हैं उस नगर के अन्य समस्त जिनालयों में विराजे जिन भगवन्तों के साथ उस नगर की सीमा में जमीन के अन्दर यदि कोई जिन मंदिर या प्रतिमा दबी हो अथवा उस नगर की सीमा में आकाश में कोई व्यंतर अपना चैत्यालय लिए घूम रहा हो उसमें विराजे जिन भगवंतों की आराधना का अर्घ्य अन्त में चढ़ाकर शान्तिपाठ / विसर्जन करना चाहिए। पूजाभक्ति में इन परिणामों के साथ पूजक पूज्य की आराधना कर अपार शुभाश्रव के साथ निर्जरा भी करता है।
द्रव्य अर्पण की महत्ता
श्री वसुनंदी आचार्य ने अपने श्रावकाचार ग्रंथ में लिखा है कि जल से पूजा करने से पाप रूपी मैल का संशोधन होता है। चन्दन चढ़ाने से मनुष्य सौभाग्य से सम्पन्न होता है। अक्षत चढ़ाने से अक्षय निधि रूप मोक्ष को प्राप्त करता है तथा अक्षीण लब्धि युक्त होता है। पुष्प से पूजन करने वाला कामदेव के समान समर्चित देहवाला होता है। नैवेद्य चढ़ाने से शक्ति, कान्ति और तेज से सम्पन्न होता है। दीप से पूजन करने वाला केवलज्ञानी होता है। धूप से 'पूजन करने से त्रैलोक्य व्यापी यशवाला होता है तथा फल से पूजन करने वाला निर्वाण सुख रूप फल को प्राप्त करता है तथा अर्घ आठों अक्षय तिथियों की प्राप्ती का प्रतीक है।
निर्माल्य
जिनेन्द्र भगवान की आराधना के निमित्त लाई गई सामग्री अथवा चढ़ाई गई सामग्री को किसी भी रूप में श्रावक को ग्राह्य नहीं करना चाहिए। अष्ट द्रव्यादि सामग्री असहाय जीवों तथा पशु पक्षियों को डाल देना चाहिए तथा जो मूल्यवान साज-सज्जा या पुन: उपयोगी वस्तुयें हैं उन्हें मंदिर जी के भण्डारगृह में ही रखें और पुनः पुनः उपयोग के बाद अनुपयोगी होने पर किसी नदी तालाब में उन्हें विसर्जित कर देना चाहिए। जिससे उस वस्तु के प्रति ममकार अथवा ग्राह्यता की भावना न रहे। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने नियमसार ग्रंथ की गाथा 32 में लिखा है कि "जिनशासन के आयतनों की रक्षा अपना
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