________________
जैन आगम के आलोक में पूजन विधान
कारण है। भगवंत पुष्पदंत भूतवली स्वामी ने धवला ग्रंथ में लिखा है कि" जिणविंव दंसणेण णिधत्ताणि काचिदस्स विमिच्छत्तादि कम्म-कलावस्स खयदेसणादो"
221
अर्थात् जिन बिम्ब के दर्शन से निधत्त और निकाचित रूप कर्म भी मिथ्यात्वादि कर्म कलाप का क्षय हो जाता है। अर्हत भगवान की पूजा के माहात्म्य से सम्यक् दर्शन से पवित्र भी पूजक को पूजा आज्ञा आदि उत्कर्षकारक सम्पत्तियाँ आवश्यक रूप से प्राप्त होती हैं। फिर व्रत सहित व्यक्ति का तो कहना ही क्या है। जो व्यक्ति भक्ति से जिनवाणी को पूजते हैं- वह पुरुष वास्तव में जिन भगवान को ही पूजते हैं। क्योंकि सर्वज्ञदेव, जिनवाणी और जिनेन्द्रदेव में कुछ भी अन्तर नहीं है।
पूजा की वैज्ञानिकता
ज्ञानपूर्वक श्री अरिहंत के पादमूल में की गई पूजन ही उत्तमफल और सिद्धियों को देने वाली होती है। जिस थाली में द्रव्य चढ़ाते हैं उसमें बीजाक्षरों को अंकित करते हैं उनका हेतु हमें अवश्य जानना चाहिए। क्योंकि बिना कारण के कार्य की सिद्धि सम्भव नहीं है। विवेक पूर्वक की गई पूजा प्रवृत्ति से ही मोक्षसिद्धि में साधक होती है।
द्रव्य चढ़ाने वाली थाली में सर्वप्रथम चन्दन या केशर से ऊँ बीजाक्षर लिखें उसके नीचे "श्री" तथा उनके नीचे स्वस्तिक बनाएं। दाएं हाथ की तरफ खड़े में 5 बिन्दु और बायें हाथ की तरफ खड़े में चार बिन्दु स्वस्तिक के नीचे तीन बिन्दु रखें तथा थापना (ठोना) के ऊपर अष्टगुणी का कमल बनायें।
जब हम पूजन आरंभ करें तो बायें हाथ की तरफ थाली में बने चार बिन्दुओं पर ही पुष्प चढ़ायें यह चार बिन्दु अर्हत सिद्ध साधु तथा इनके कहे हुए धर्म के प्रतीक हैं। यही तीन लोक में उत्तम हैं, मंगलमय हैं तथा शरणभूत हैं। अतः उत्तम कल्याणक शरणभूत के लिए अर्हत के पादमूल में इन्हीं 4 बिन्दुओं पर पुष्प चढ़ाकर कल्याण की भावना साकार करते हैं। पूजन के आरंभ में अपवित्रः पवित्रो वा पद बोल कर पूज को यंत्र की, कल्याणकों की, द्वादशांग वाणी की, तीर्थंकर के 1008 गुणों की एवं तत्वार्थ सूत्र . की पूजा करना चाहिए। अतः पांच बिन्दुओं पर पांचों पूजायें या 5 अर्थ उपर्युक्त हेतुओं की आराधना के अर्थ अर्पित करते हैं।
Jain Education International
हमारे पूर्वाचार्यों ने प्राकृत या संस्कृत भाषा में जिन पूजाओं की रचना की है पूर्व विद्वान कवियों ने हिन्दी पद्यान्तर में उसी अनुरूप पूजायें लिखकर महान उपकार किया। वर्तमान कवियों ने नवीन नवीन प्रकार की अक्रमिक पूजायें लिखकर पूजा पद्धति में विकृति प्रदान की है। सर्वप्रथम देवशास्त्र गुरु की पूजा करना चाहिए और इस पूजा की अष्ट द्रव्य ॐ बीजाक्षर पर ही अर्पित करना चाहिए। प्रत्येक बीजाक्षर को आत्मभूत करने ( सिद्ध करने) के लिए उस बीजाक्षर की तद्रूप की गई आराधना की अष्ट द्रव्य चढ़ाने की आवश्यकता है। इससे ही वह बीजाक्षर आत्मभूत होता है। जब तक बीजाक्षर आत्मभूत नहीं होगा आत्मा की पात्रता मोक्षरूप सम्भव नहीं है। ॐ बीजाक्षर पंच परमेष्ठी के प्रथम मूल अक्षरों का संयुक्त रूप है अतः इस बीजाक्षर के आत्मभूत होने पर पंचपरमेष्ठी पद
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org