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________________ 220 स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ 3. स्थापना - अभिषेक के लिए जिन प्रतिमा को थाली में स्थापित करना स्थापना है। 4. सन्निधापन- भगवान जिनेन्द्र की प्रतिमा का अभिषेक करने के लिए तैयार हो जाना । 5. पूजा- अभिषेक के बाद जिन प्रतिमा की आरती करके पूजन विधि सम्पन्न करना । 6. पूजाफल- समस्त जीवों के कल्याण की भावना करना पूजाफल है। आचार्य श्री वसुनंदी स्वामी ने वसुनंदी श्रावकाचार में भगवान जिनेन्द्रदेव की पूजा के छः भेद कहे हैं। 1. नाम- अरिहंत आदि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुष्प क्षेपण किए जाते हैं उसे नाम पूजा जानना चाहिए। 2. स्थापना- आकार आदि में या आकारवान वस्तुयें अरिहंतादि गुणों का आरोपण करना भाव पूजा स्थापना है तथा अक्षत आदि में अमुक देवता है ऐसा संकल्प कर उच्चारण करना असद्भाव पूजा स्थापना है। हुण्डापसर्पिणी काल में असद्भाव स्थापना पूजा नहीं करना चाहिए क्योंकि कुलिंगमतियों से मोहित इस लोक में सन्देह हो सकता है। 3. द्रव्यपूजा- जल आदि द्रव्यों से प्रतिमा की जो पूजा की जाती है उसे द्रव्यपूजा कहते हैं। अर्थात् अरिहंतादि के लिए गंध पुष्प दीप धूप अक्षत फल आदि समर्पण करना द्रव्य पूजा है। 4. क्षेत्रपूजा - जिनेन्द्र भगवान के प्रत्येक कल्याणक युक्त भूमि की अष्टद्रव्य से की गई पूजा क्षेत्रपूजा कहलाती है। 5. कालपूजा- जिस दिन तीर्थंकरों के कल्याणक हुए हैं उस दिन तीर्थंकर प्रतिमा का अभिषेक कर पूजन करना अथवा नन्दीश्वर आदि की अष्टान्हिक पर्वों में जो जिन महिमा की जाती है वह कालपूजा जानना चाहिए। 6. भावपूजा - मन से अरिहंतादि के गुणों का चिन्तन करना भावपूजा है अथवा णमोकार पदों के द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार जाप करे या स्तोत्र का पाठ करे यह भावपूजा है। पूजा की महत्ता - आचार्यश्री पदमनंदी स्वामी ने "पद्मनंदि पंचविंशति" नामक ग्रंथ में लिखा ये जिनेन्द्र न पश्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति न। निष्फलं जीवनं तेषां धिक् च गृहाश्रमम् ॥ जो जीव भक्ति से जिनेन्द्र भगवान का न दर्शन करते हैं न पूजन करते हैं और न ही स्तुति करते हैं उनका जीवन निष्फल है तथा उनके गृहस्थ को धिक्कार है। उसी प्रकार पंचाध्यायी महान ग्रंथ में लिखा है कि पूजा मप्यर्हतां कुर्याद्वा प्रतिमासु तद्विया । स्वर व्यंजनादि संस्थाप्य सिद्धातव्यर्चयेत्सुधी ।। उत्तम बुद्धि वाला श्रावक प्रतिमाओं में अर्हत की बुद्धि से अर्हत भगवान की और सिद्ध यंत्र में स्वर व्यंजन आदि रूप से सिद्धों की स्थापना करके पूजा करे। विवेकी जीव भावपूर्वक अरिहंत को नमस्कार करता वह अतिशीघ्र समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। क्योंकि अर्हत नमस्कार तत्कालीन बंध की अपेक्षा असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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