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जैन आगम के आलोक में पूजन विधान
होती है और असंख्यात गुणा शुभ कर्म का आश्रव होता है। जैन आगम में भगवान जिनेन्द्र देव के साथ निर्ग्रन्थ गुरु और जिनवाणी की पूजा का भी विधान है। श्रावक के षट् कर्त्तव्यों में देव पूजा को प्रथम कर्त्तव्य के रूप में हमारे परम्पराचार्यों ने निहित किया है। जिनेन्द्र भक्ति से हम अशुभ से बचकर शुभ में प्रवृत्त होते हैं। शुभ से ही शुक्ल की ओर बढ़ा जाता है। अशुभ से शुक्ल की ओर नहीं बढ़ते । अतः जिनेन्द्र देव की पूजन परम्परा से मोक्ष का कारण कही गई है। मुनि हो या श्रावक दोनों को जिनेन्द्र भगवान की पूजन करने का विधान है। मुनिराजों को भाव पूजा करने की आज्ञा है जबकि श्रावकों को द्रव्य पूजा करने का ही विधान है। मनुष्य जीवन की सार्थकता जिनेन्द्र भक्ति ही है। इसीलिए पूर्वाचार्यों ने इसे प्रधानता प्रदान की है।
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पूजा के प्रकार
श्रावक और मुनि की अपेक्षा से पूजा द्रव्य और भाव से दो प्रकार की कही गई है। श्री जिनसेन स्वामी ने आदिपुराण में द्रव्य पूजा के चार प्रकार कहे हैं:
1. सदार्चन (नित्यमह ) - प्रतिदिन अपने घर से गन्ध पुष्प अक्षत फल आदि ले जाकर " जिनालय में श्री जिनेन्द्र देव की पूजा करना सदार्चन है। भक्तिपूर्वक अर्हतदेव की प्रतिमा और मंदिर का निर्माण करना, दान पत्र पर खेत खलिहान भवन आदि श्री जिन मंदिर की व्यवस्था हेतु देना भी सदार्चन ही है।
2. चतुर्मुख ( सर्वतोभद्र ) - मुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो महायज्ञ किया जाता है वह चतुर्मुख यज्ञ कहलाता है।
3. कल्पद्रुम- चक्रवर्ती के द्वारा किमिच्छिक दान देते हुए जो पूजा की जाती है वह कल्पद्रुम है। इसमें तीर्थंकर के समवशरण की रचना कर उसके पार्श्व में विधिवत तीर्थंकर की पूजा की जाती है।
4. आष्टान्हिक- अष्टान्हिका पर्व में जो पूजा की जाती है वह अष्टान्हिक पूजा है। इसमें सभी श्रावक अष्टान्हिक पर्व में विशेष आराधना करते हैं। इसके सिवाय इन्द्र के द्वारा जो महायज्ञ किया जाता है वह 'इन्द्रध्वज' विधान है। इसके अलावा जो अन्य प्रकार की पूजाएं हैं वह इन्हीं भेदों के अन्तर्गत अन्तर्गत हैं।
धवला पुस्तक 8 खण्ड 3 में लिखा है कि अष्टद्रव्य से अपनी भक्ति प्रकाशित करने का नाम पूजा है। वसुनंदी श्रावकाचार में लिखा है कि जिनेन्द्र पूजन के समय जिन भगवान के आगे जलधारा छोड़ने से पापरूपी मैल का संशोधन हो जाता है। इसी प्रकार एक-एक द्रव्य के अर्पण से अनेक-अनेक सौभाग्यों का प्राप्त करना कहा है।
पूजा के भेद- श्री सोमदेव आचार्य ने छः प्रकार की पूजा करने का निर्देश दिया
है
1. प्रस्तावना - जिनेन्द्र देव का गुणानुवाद करते हुए जिनेन्द्र प्रतिमा पर जल के द्वारा अभिषेक विधि सम्पन्न करना प्रस्तावना है।
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2. पुराकर्म- जिस पात्र में अभिषेक के लिए प्रतिमा स्थापित की जाती है उसके चारों कोनों पर चार कलश जलपूर्ति स्थापित करना पुराकर्म है।
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