________________
जैन आगम के आलोक में पूजन विधान प्रतिष्ठाचार्य पं. वर्द्धमान कुमार जैन सोरया*
प्रस्तावना
जिनेन्द्र देव की पूजा परम्परा भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के बाद से मौखिक (कंठगत) रूप में प्रचलित रही है। सर्वप्रथम पांचवीं शताब्दी में प. पू. आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी का जैनाभिषेक प्राप्त होता है। 9वीं शताब्दी में आचार्य श्री नयनंदी स्वामी का सकल विधि विधान एवं 10-11वीं शताब्दी में आचार्य अभयनंदी स्वामी व शान्तिचक्र पूजा, आचार्य श्री मल्लिषेण का वज्रपंजर विधान तथा आचार्य कल्प श्री आशाधर जी का जिन यज्ञ कल्प देखने को मिला। बारहवीं सदी में आचार्य श्री पद्मनंदी जी का देवपूजा एवं पार्श्वनाथ विधान तथा 14वीं सदी में आचार्य श्री श्रुतसागर जी का सिद्धचक्राष्टक एवं श्रुतस्कंध पूजा महाभिषेक आदि ग्रंथ हैं। इसके बाद विद्वानों ने हिन्दी पद्यान्तर पूजा ग्रंथों का निर्माण किया है। इन सभी के आधार पर तथा आगम के सैद्धान्तिक ग्रंथों के परिप्रेक्ष्य में जो देखा है उसके आधार पर इस आलेख को प्रस्तुत कर रहा हूँ। जहाँ तक विधि विधान की बात है अनेक पौराणिक ग्रंथों तथा प्रतिष्ठा ग्रंथों के आधार पर ही अहंत के पादमूल में भक्ति करना उपादेय है। पूजा का हेतु- राग प्रचुर होने के कारण गृहस्थों के लिए जिनेन्द्र की पूजा करना प्रधान और प्रथम कर्तव्य है। इसमें पंच परमेष्ठी की प्रतिमाओं का आश्रय होता है। परन्तु स्वयं के परिणामों की प्रधानता है जिसके कारण पूजक के द्वारा पूज्य के प्रति की गई भक्ति से असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा होती रहती है। नित्य नैमित्तिक भेद से पूजा अनेक प्रकार की है। वाद्य गान-नृत्य के द्वारा की गई पूजा प्रचुर फलदायी होती है। याग, यज्ञ, ऋतु, पूजा, स्थायी, इज्या, अध्वर, मरण, यह सब पूजा के ही पर्यायवाची शब्द है। अतः पूजा विधान आगमोक्त विधि से युक्त होकर करना चाहिए। आत्महित में पूजा की आवश्यकता
देवपूजा गुरुपास्ति स्वाध्यायः संयमस्तपः।
दानं चेति गृहस्थाणां षट् कर्माणि दिने दिने।। - (आ. समन्तभद्र) श्रावक के दैनिक षट् कर्तव्यों में सर्वप्रथम कर्तव्य भगवान जिनेन्द्रदेव की पूजा करना है। वों की प्रधानता के कारण पूजक की असंख्यात गुणी पाप कर्म की निर्जरा * वीतरागवाणी कार्यालय, सैलसागर, टीकमगढ़ (म.प्र.)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org