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श्रावक के षट्कर्म-उपादेयता
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ये षट्कर्म जीवन जीने की कला के छः अंग हैं, इनका अन्योन्याश्रय सम्बंध है। इनसे तृप्ति, तुष्टि, शान्ति तो होती ही है, आत्मा परमात्मा बनने की युक्ति भी जान जाती है। यदि मानव मात्र इन षट्कर्मों के मर्म को समझकर पालन करने लग जाये तो संसार स्वर्ग हो जाये। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के सापेक्ष में ही सही इनका पालन कर विश्व में सुख-शान्ति की सुगन्धि फैलाई जा सकती है जन-जिन बनकर ही शाश्वत् सुख का उपभोक्ता बन सकता है और जिन बनने की आधारशिला ये ही है। जैन गृहस्थ जो श्रावक है अपने षट्कर्मों को प्रतिदिन सम्यक् विधि-विधान से करके सम्यक् रत्नत्रय पथ पर अग्रसर हो प्रेयस और श्रेयस की उपलब्धि कर सकता है, इस दृष्टि से यह मंगल कृत्य सर्वकालिक उपादेय है।
समीचीन 'षट्कर्म' से, प्रेयस-श्रेयस सृष्टि, 'विमल' विश्व सुख शान्ति को, जिन वृषवैभव वृष्टि।
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