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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
का निग्रह करना, इन्द्रिय संयम है, अत: इन्द्रिय निरोधः संयमः के रूप में द्रव्य संयम और भाव संयम अथवा व्यवहार संयम और निश्चय संयम की साधना श्रावक का प्रतिदिन का कर्तव्य है। इन्द्रिय संयम के साथ प्राणी संयम छ: काय के जीवों की रक्षा करना, श्रावक के लिये परमावश्यक है। मानव इन्द्रिय विषयों में आशक्ति छोड़ दे और प्राणी संयम के प्रति सजग रहे तो विश्व के समस्त अपराध समाप्त हो जायेंगे, न भाव प्रदूषण होगा न द्रव्य प्रदूषण, विशुद्ध पर्यावरण में आत्म साधना की बहार आ जायेगी। अतः श्रावक प्रेयस और श्रेयस की उपलब्धि के लिए संयमित जीवन शैली अपनाये यह गुरु मंत्र त्रैकालिक उपादेय
तप - 'तपसा निर्जरा च' तप के ताप से बाह्य मल की ही नहीं कर्म रज की भी निर्जरा होती है। श्रावक सांसारिक सुख के लिए नहीं अपितु आध्यात्मिक शाश्वत सुख के लिए तप करता है "कर्मक्षयार्थतप्यत इति तपः" अर्थात् कर्मों का क्षय करने के लिए तप करना ही सम्यक् तप है। श्रावक भली भाँति जानकर अन्तरंग और बहिरंग बारह प्रकार का तप यथाशक्ति करता है 'इच्छानिरोधस्तपः' कहकर अनिष्ट इच्छाओं का शमन करने के लिए तप किया जाता है। तप का उल्टा पत होता है अतः पतन से बचने के लिए उत्तम तप करना श्रावक का प्रतिदिन का कर्तव्य है। मानव की पर्याय में ही सिद्धत्व की प्राप्ति सम्भव है और उसका एक ही मार्ग है सम्यक् श्रद्धा के साथ सम्यक् ज्ञान पूर्वक सम्यक् चारित्र का पालन करना. इन तीनों की त्रिवेणी में डबकी लगाकर कर्म मल से मक्ति मिलती है इस उपाय रूप में संयम और तप की महती भूमिका है। दान - 'दाणं पूया मुक्खम्' कहकर गृहस्थ जीवन में 'दान देना' सर्वोपरि कर्त्तव्य है। प्रकृति दान देकर ही चिरजीवी बनी है, विसर्जन करके अर्जन करना और अर्जित को विसर्जित करना संसार का शाश्वत् नियम है। गृहस्थ धर्म निर्वहन करने की प्रथम भूमिका दान से ही आरम्भ होती है मानव जीवन जीने के लिए उसे पोषित होने, सुखी रहने के लिए भी दान देना और लेना आवश्यक है 'अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गोदानं' अर्थात् दूसरे के उपकारार्थ अपनी वस्तु देना 'दान' है। मानव सभ्यता और संस्कृति भी खिलाकर खाने को आदर्श मानती है। मनुष्य स्वार्जित धन को अपने पूर्वजों और अग्रजों पर व्यय करता है क्योंकि उनसे उसने लिया है और लेगा परन्तु दान मुख्यतः पात्रदत्ति-चर्तुविधि संघ को, आहार, औषधि, अभय और ज्ञान दान के रूप में दे दिया जाता है। समदत्ति में श्रावक व समाज के विकास हेतु द्रव्य दान किया जाता है। दयादत्ति में दोन-दुखी जरूरत मन्द की यथा योग्य सहायता की जाती है। अन्वय दत्ती में स्वार्जित द्रव्य व सत्ता को स्वपुत्र या योग्य व्यक्ति को सम्पूर्ण रूप में देकर मनुष्य आत्मा के कल्याण में निःशल्य होकर लग जाता है। इस प्रकार विधिवत् श्रावक अपने धन, श्रम तथा समय को सम्यक् कार्यों में लगाता है। वैसे भी धन की तीन गति है, दान, भोग और नाश। श्रावक धर्म के संरक्षण और सम्वर्धन में धन लगाकर स्व-पर का कल्याण करता है। बिना दान के न श्रमण का धर्म पलेगा न श्रावक का कर्तव्य पूर्ण होगा। समाज का संतुलन तथा वैयक्तिक विकास के लिए कर्तृत्व और भोक्तृत्व में विवेकशीलता लाने में दान की महती भूमिका है।
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