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श्रावक के षट्कर्म-उपादेयता
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'न धर्मो धार्मिकैर्विना' धर्मात्मा के बिना धर्म दिखाई नहीं देता अतः चर्तुविधि संघ के धर्माचरण के निर्वहन के लिये श्रावक प्रतिदिन अपने इस कर्तव्य का पालन करे यह आवश्यक है। 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' के अनुसार श्री श्रमण श्रावक को धर्मोपदेश दें धर्म में प्रवृत्ति कराता है और श्रावक श्रमण रत्नत्रय के धर्म संरक्षण में सहयोगी हो स्व-पर का कल्याण करता है। स्वाध्याय- स्व. आत्मा का ध्यान करना, निश्चय स्वाध्याय है:
"स्व आत्मने अध्येति इति स्वाध्यायः" भव्यात्मा परमात्मा बनने के लिए स्वात्मा में लीन हो. आत्मध्यान में तल्लीन हो, यह स्वाध्याय है। व्यवहार नय की अपेक्षा जिनवाणी, जिनागम का श्रद्धाभाव से अध्ययन करना स्वाध्याय है। ज्ञान पिपासु श्रावक जिनेन्द्र देव के वचन, जिनागम का अध्ययन कर तत्व बोध को प्राप्त करता है। वर्तमान में जिनागम चार अनुयोगों के रूप में द्रव्य श्रुत अवस्थित है। श्रावक प्रतिदिन अनिवार्य रूप से इनका पठन-पाठन श्रवण तथा चर्चा-परिचर्चा करके सम्यग्ज्ञान की पूंजी में वृद्धि करे। जिससे उसमें संवेग, प्रशम, अनुकम्पा, आस्तिक्य गुणों की अभिवृद्धि हो प्रथमानुयोग में त्रेषठशलाका महापुरुषों की जीवन गाथा है जिनके जानने से आदर्श जीवन जीने की कला का ज्ञान होता है, संवेग जाग्रत होता है, पाप से निवृत्ति और धर्म में प्रवृत्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। करणानुयोग में लोकालोक की व्यवस्था वर्णित है अतः प्रशमता उत्पन्न होती है, कषायों का उपशमन होता है, इन शास्त्रों को गुरुओं के सान्निध्य में तथा विज्ञजनों के बीच में चर्चा-परिचर्चा करते हुए स्वाध्याय करना चाहिये। चरणानुयोग में श्रमण-श्रावक चर्या की विस्तृत विवेचना है, इनका ज्ञान चारित्र में विशुद्धि लाता है तथा अनुकम्पा गुण में वृद्धि होती है। द्रव्यानुयोग में जीवाजीव, सात तत्व, नव पदार्थ, छः द्रव्य आदि की विषद् व्याख्या है अतः इनका अभिज्ञान आस्तिक्य भाव में वृद्धि ला शिवत्व का बोध कराता है। इस प्रकार देख-भाल कर चलने तथा किये का फल भोगने, कर्म सिद्धान्त के मर्म आदि का सम्यक् बोध स्वाध्याय से ही सम्भव है अतः श्रावक को द्रव्य, काल, क्षेत्र, भाव की विशुद्धि के साथ वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश इन पांचों अंगों को समझते हुए प्रतिदिन स्वाध्याय कर सर्वज्ञता प्राप्ति का बीजारोपण करने की बात कही गयी है। श्रुत ज्ञान का फल अच्युत और अनुपमेय है। आज जब सर्वज्ञ देव नहीं हैं तो सर्वज्ञ की वाणी जिनागम ही मानव को पुण्य, पाप, कृत्याकृत्य का समीचीन बोध कराती है, वैसे भी "णाणं णरस्स सारो"ज्ञान ही जीवन का सार है, मानवता की विशेषता ही ज्ञान और विवेक है अतः हेय-उपादेय का विवेक जाग्रत करने को स्वाध्याय की आवश्यकता कल भी थी, आज भी है और भविष्य में भी सम्यक् रत्नत्रय ही मोक्ष पहुंचायेगा। संयम- 'संयमनं संयमः' मन के संयम को मुख्यतः संयम कहा है, मन ही है जो पांचों इन्द्रियों को सुमार्ग और कुमार्ग में ले जाता है। मन का उपयोग पर पदार्थ से हटा आत्मानुभव में लगाना, स्वयं को सीमित कर सम्यक् दिशा में ले जाना, पांच व्रतों को धारण करना, पांच समितियों के अन्तर्गत रहना, क्रोध, मान, माया, लोभ पर नियंत्रण रखना, मन-वचन-काय
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