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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
सर्वज्ञता प्राप्त कर सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, इन त्रैरत्न मार्ग को प्ररूपण करते हैं। भगवान महावीर ऐसे चौबीसवें तीर्थकर थे अतः उन्होंने भी श्रावक धर्म बताते समय ये षट्कर्म गृहस्थ को प्रतिदिन अवश्य करने की बात कही है। ये मोक्ष पुरुषार्थ की नींव है जो धर्म पुरुषार्थ के रूप में करना अनिवार्य माना है। धर्म सनातन नैतिक मूल्य है अत: व्यवहार रूप में अर्थनीति और कामनीति कहकर अर्थ-काम को धर्म से जोड़ा गया है। धर्म का मोक्ष से अन्योन्याश्रय सम्बंध है अथवा मोक्ष मार्ग का व्यवहार स्वरूप धर्म के अन्तर्गत आता है अतः धर्म अध्यात्मसिक्त होते हुये भी व्यक्तिवादी है। धर्म कृत्यों से समष्टि को बल प्राप्त होता है और व्यक्ति का परिष्कार होता है। जैन दर्शन में धर्म और मोक्ष को जीवन का आधार कहा है तथा अर्थ और काम पर नियंत्रण रखने को भी श्रेयस को सर्वोपरि माना है। कर्तृत्व और भोक्तृत्व में विवेक बना रहे, कर्मयोग में आशक्ति न हो, आत्मशुद्धि का मार्ग प्रशस्त हो, ऐसे ही कर्त्तव्य को करणीय कहा गया है। देवपूजा:- श्रावक का आगमिक कर्म तथा कुल परम्परा के रूप में आवश्यक कर्तव्य है। वह श्रद्धा, विवेक के साथ इस सत्कृत्य को करने में अपना अहोभाग्य समझता है। प्रेयस (अर्थ-काम) - श्रेयस (धर्म-मोक्ष) की उपलब्धि के लिये वह अपने इष्ट देव वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी अरिहन्त भगवान की प्रतीक रूप जिनबिम्ब का दर्शन, अभिषेक, पूजन, गुणों का स्तवन, पंच नमस्कार मंत्र आदि का जाप और धर्म ध्यान करके ऐहिलौकिक और पारलौकिक सुख-शान्ति का शाश्वत कल्प वृक्ष लगाता है। श्रावक का दृढ़ श्रद्धान है कि देव पूजा भुक्ति और मुक्ति प्रदायक है। जिनेन्द्र देव ही मंगल प्रदायक हैं वे ही शाश्वत शरण हैं और कर्मबन्ध से मुक्त कराने वाले हैं। वह अपने इष्ट देव की पूजा करके पवित्र होना चाहता है। उनसे आत्मीयता स्थापित कर उनके गुणों को पाना चाहता है 'वन्दे तद् गुणलब्धये' उसका लक्ष्य है। भक्त भगवान से वार्तालाप कर अपनी चित्त वृत्तियों का निर्मलीकरण करता है। सर्वोत्कृष्ट त्रिलोक पति जिनेन्द्र देव के गुणों की पूजा कर व्यवहारिक रूप में वैयक्तिक उत्थान एवं परमार्थिक रूप में आत्मिक उद्धार का उसे पूर्ण विश्वास है। पूजन सामग्री अर्पित करते समय भी एक ही भावना और लगन है "मोहि आप सम कर देहु स्वामी" और एक दिन वह वास्तव में सिद्धत्व प्राप्त कर लेगा इसमें कोई संदेह नहीं। गुरुपास्ति
गुरु उपासना में निर्ग्रन्थ मुनि, आर्यिका, व्रती श्रावक के प्रति कल्याण के इच्छुक श्रावक श्रद्धा-भक्ति रखते हुए उनका धर्मोपदेश सुन लाभान्वित होते हैं, एकाग्र भाव से उनके सान्निध्य में अध्ययन-स्वाध्याय कर ज्ञानार्जन करते हैं। उनके व्रताचरण के संरक्षण हेतु उनकी समीचीन आहार व्यवस्था, वसतिका, उपधि (पीछी आदि), वैयावृत्ति तथा विहार आदि की व्यवस्था करते हैं। श्रावक प्रतिदिन अपने द्वार पर खड़ा हो गुरु आगमन की प्रतीक्षा करता है ताकि उन्हें प्रासुक आहार कराके उनके रत्नत्रय साधना में सहयोगी बन सके तथा वह अपने गृह और गृहस्थ जीवन को सार्थक कर सके। श्रमण संस्कृति का सम्वर्धक श्रावक भी है, श्रमणचर्या को विशुद्ध रखना श्रावक का परमावश्यक कर्तव्य है।
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