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________________ श्रावक के षट्कर्म-उपादेयता 213 सूत्र दिये हैं जिसपर अभ्युदय और निःश्रेयस (कल्याण) की सिद्धि हो, यही धर्म है और यही जिनवाणी है। जन का विशुद्ध रूप जिन है अर्थात् मनुष्य संयम तप से इन्द्रिय विजय कर, घातिया कर्मों को क्षय कर वीतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव बन तीर्थ प्रर्वतन करते हैं और उनके अनुयायी 'जैन' नाम से जाने जाते हैं। इन्हीं में जो आगमानुसार महाव्रत धारण कर मोक्ष पुरुषार्थ की साधना करते हैं वे श्रमण कहलाते हैं और जो मोक्ष पुरुषार्थ का लक्ष्य तो रखते हैं परन्तु पूर्णतः निवृत्ति मार्ग को अपनाने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं वे धर्म-अर्थ-काम इन त्रैवर्ग के सत्पुरुषार्थ को समीचीन अणुव्रती के रूप में रखते हैं वे श्रावक कहे जाते हैं। श्रावक श्रद्धवान, तत्वार्थ, श्रद्धानी, विवेकशील (वरण पुण्य का) क्रियावान/क्लिष्ट कर्म/पाप दूर करने में प्रयत्नशील होता है। वे पाप से निवृत्ति हेतु व्रताचरण करते हैं तथा पुण्य कृत्य में प्रवृत्ति करते हुये वैराग्य की ओर अग्रसर होते हैं उनका लक्ष्य वीतराग प्रभु के सानिध्य में, दर्शन-पूजा-गुणानुवाद, जप-ध्यान करके उन्हीं जैसा बनना, गुरु उपासना कर आत्म विशुद्धता का गुरु मंत्र सीखना, स्वाध्याय/श्रुतज्ञान द्वारा हेय-उपादेय विवेक को जाग्रत करना, संयम साधना से पंचेन्द्रिय तथा मन को जीतने एवं तपश्चरण के अभ्यास से कर्मों की निर्जरा करने, दान द्वारा अर्जित धन का सदुपयोग तथा चर्तुविधि संघ के धर्माचरण का संरक्षण करना, पुण्य के साथ-साथ मानवता का सम्वर्धन करना है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये आगम में श्रावक के षट्कर्म की मीमांसा की गयी है। ये षट् आवश्यक कर्म श्रेष्ठ गृहस्थ श्रावक के लिए है, ऐरा-गैरा, नत्थू खेड़ा, पशुवत मानव पर्याय को व्यतीत करने वाले के लिये ये सत्कृत्य नहीं हैं। जो मनुष्य आहार, निंद्रा, भय, मैथुन मात्र के लिए जन्म लेकर मर जाता है, उस वहिरात्मा के लिए यह शिवत्व का अमृत बीज नहीं है यह तो भव्यात्मा जो कुछ ही भवान्तरों में सिद्धत्व की अधिकारिणी है उनके लिये हैं। रही इन षट्कर्म में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के सापेक्ष में बदलाव की अपेक्षा, वह तो स्वयं हो जाता है इसे करने की आवश्यकता नहीं है यह निश्चय धर्म नहीं अतः शाश्वत् या सर्वकालिक भी नहीं हो सकता यह व्यवहार धर्म है। मुमुक्षु अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार, निमित्त और उपादान को समीचीन बना सकता है, उसका ज्ञान और विवेक मात्र एक भव के अर्जित पुण्य का फल नहीं होता, यही कारण है कि भगवान ऋषभदेव को एक हजार वर्ष तक कठिन तपश्चरण के बाद केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी जबकि उन्हीं के पुत्र और शिष्य (मुख्य श्रोता) भरत चक्रवर्ती को अर्तमुहुर्त की साधना में ध्यान की फलश्रुति हो गयी थी। इसी आशय को लेकर श्रावक के नित्य-प्रति करणीय षट्कर्मों पर प्रकाश डाला जा रहा है। देवपूजा गुरुपास्ति स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानं चेति गृहस्थानाम् षट् कर्माणि दिने-दिने।। - श्रावकाचार अर्थात् देव पूजा, गुरुओं की सेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये गृहस्थ के छः दैनिक कर्म हैं, प्रत्येक गृहस्थ को प्रतिदिन ये छः कर्म अवश्य करने चाहिये। कर्मयुग में कर्म पुरुषार्थ करके मानव धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ की फलश्रुति पा सकता है अतः प्रेय और श्रेय को पाने का समीचीन उपाय भी चाहिये। तीर्थकर स्वयं साधना करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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