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________________ श्रावक के षट्कर्म-उपादेयता विमला जैन “विमल'* एक लोकोक्ति है "महापुरुष क्या करते हैं यह अनुकरणीय नहीं है अपितु वे क्या कहते हैं यह करणीय है।" महापुरुषों का जीवन जन्म-जन्म के सत्पुरुषार्थों से तपा हुआ होता है अतः सामान्य क्रिया-कलाप वे करें ही यह आवश्यक नहीं। भगवान महावीर ने अपने पूर्वजन्मों मुख्यतः, अन्तिम दश भव मोक्ष महल के सोपान के रूप में चढ़े थे, आठवाँ भव तीर्थकर पद की तैयारी में असिधारा तपश्चरण, सोलह कारण भावना और द्वादशांग के ज्ञान की फलश्रुति के रूप में "पुण्यफला अरिहन्ता" अवतरित हुये थे। गर्भ में आने से छह माह पूर्व ही यह अभिव्यक्त हो चुका था। वे जीवन के तीस वर्ष घर में रहकर अवश्य व्यतीत करते हैं परन्तु वे अलौकिक हैं, अनुपम हैं, वीतरागी भावों से परिपूर्ण हैं, गृहरूपी जल में रहकर भी कमलवत निर्मल हैं, निर्लिप्त हैं, प्रेयस की विभूतियाँ उनके चरणों में लोट रही थी, कंचन-कामिनी उनके दृष्टि पात को तरस रही थी पर वे निर्विकार अनासक्त स्वात्म चिन्तन में निमग्न रहते हैं, उन्हें ज्ञानार्जन को शिक्षक, वैराग्य को उपदेश और दीक्षा को गुरु की आवश्यकता नहीं पड़ी। वे स्वयम्भू दीक्षित हुये, मौन साधना की और कैवल्य को प्राप्त कर लिया। प्रश्न है, भगवान महावीर ने गृहस्थावस्था के तीन दशक में श्रावक के षट्कर्म किये या नहीं? उत्तर स्पष्ट है वे इन प्राथमिक क्रिया-कलापों से बहुत ऊपर आ चुके थे उनके योग्य न गुरु थे न गुरु वाणी, उन्हें तो स्वयं ही सम्यक रत्नत्रय की ज्योति को फैलाना था, यहाँ तक कि केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद भी योग्य श्रोता (गणधर) के अभाव में दिव्यध्वनि नहीं खिरी। पैंसठ दिन तक समवशरण (सभामण्डप) सप्त अतिशय से पूर्ण था, आठवाँ अतिशय दिव्य वाणी ध्वनित नहीं हुई, छयासठवें दिन इन्द्रभूति गौतम के सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र से विभूषित होते ही- वीतरागी, सर्वज्ञ, हितोपदेशी अरिहन्त भगवान महावीर की दिव्य अमृतवाणी ध्वनित हो गयी थी। तीर्थकर महावीर ने श्रमण और श्रावकचर्या का निरूपण किया है। वर्तमान में "आप्त द्वारा ध्वनित गणधर द्वारा कथित मुनि-आचार्य द्वारा आगत या रचित आगम दार्शनिक, धार्मिक, नैतिक ज्ञान श्रुत रूप में मानव का मार्ग प्रशस्त कर रहा है। आगम ग्रन्थों में समीचीन धर्म की विशद व्याख्या हुई है। यहाँ आध्यात्मिक संदर्भो में आत्मिक उत्थान और वैयक्तिक विकास तथा सामाजिक संगठन व जीव मात्र के कल्याण के लिये मंगल * 1/344, सुहाग नगर, फिरोजाबाद, (उ.प्र.)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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