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जैन आगम के आलोक में पूजन विधान
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आराधना के निमित्त प्रदान किए हुए दान को जो मनुष्य लोभ बस ग्रहण करे तो वह पुरुष नरकगामी महापापी है। "राजवार्तिक ग्रंथ में भी लिखा है कि"- मंदिर के गन्ध, माल्य, धूप आदि का चुराना अशुभ नाम कर्म के आश्रव का कारण है। अथवा देव के लिए निवेदित या अनिवेदित किए गए द्रव्य का ग्रहण अन्तराय कर्म के आश्रव का कारण है। धवलादि ग्रंथों में भी निर्माल्य के संदर्भ में विशेष विवेचन आया है।
सहायक-ग्रन्थ
जैनाभिषेक (आचार्य पूज्यपाद) शान्तिचक्र (आचार्य अभयनंदी) बज्रपंजर (आचार्य मल्लिषेण) जिन पूजा विधि (शोध निबंध) श्री सोंरया जी नियमसार (कुन्दकुन्दाचार्य) राजवार्तिक (आचार्य अकलंकदेव)
जिनयज्ञ कल्प (आचार्यकल्प आशाधरजी) 8. देवपूजा (आचार्य पद्मनंदीजी) 9. सिद्धचक्राष्टक (आचार्य श्रुतसागर) 10. श्रुतस्कंध पूजा (आचार्य श्रुतसागर) 11. रत्नकरण्डक श्रावकाचार (आचार्य समन्तभद्र) 12. आदिपुराण (श्री जिनसेन स्वामी) 13. पद्मनंदी पंचविंशति (आचार्य पद्मनंदी) 14. धवला पुस्तक - 8 (आचार्य भूतबली स्वामी) 15. पूजा के प्रकार (आचार्य सोमदेव) 16. वसुनंदी श्रावकाचार (वसुनंदी आचार्य)
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