SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का भाषण LO किया जा चका है। यहाँ यह कह देना पर्याप्त होगा कि इस अभाव को दूर करना और देश भर में बिखरे हुए प्राकृत ग्रन्थों को प्राप्त कर सम्पादन के बाद उन्हें प्रकाशित करना, इस अनुसंधानशाला तथा ग्रन्थ परिषद् का उद्देश्य होगा। प्राकृत साहित्य के महत्त्व और उसकी विशालता के संबंध में दो शब्द कह देना आवश्यक जान पड़ता है। जहाँ पाली साहित्य की परम्परा अधिक से अधिक सात शताब्दियों तक चली, वहाँ प्राकृत की परम्परा की अवधि करीब पन्द्रह शताब्दियों तक चलती रही। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि इन्डो-आर्यन परिवार की भारतीय भाषाओं का पाली की अपेक्षा प्राकृत से कहीं अधिक निकट संबंध है। वास्तव में इस देश की आधुनिक भाषायें पूर्व मध्ययुग में प्रचलित विभिन्न प्राकृतों तथा अपभ्रंश की ही उत्तराधिकारिणी हैं। हिन्दी, बँगला, मराठी आदि किसी भी भाषा को लीजिये, उसका विकास किसी न किसी प्राकृत से ही हुआ है। विकास काल में कुछ ऐसे ग्रन्थों की रचना भी हुई, जिनका वर्गीकरण निहायत कठिन है अर्थात् जिनके संबंध में सहसा यह कह देना कि उनकी भाषा प्राकृत है अथवा किसी आधुनिक भाषा का पुराना रूप, आसान काम नहीं। इस दृष्टि से देखा जाय तो आधुनिक भाषाओं की उत्पत्ति और पूर्ण .विकास को समझने के लिए प्राकृत साहित्य का सम्यक् ज्ञान आवश्यक है। अपनी परम्परा के अनुसार जैन आचार्य एक स्थान में तीन चार महीनों से अधिक नहीं ठहरते थे और बराबर भ्रमण करते रहते थे। उन्होंने जो उपदेश दिये और जिन ग्रन्थों की रचना की, वे देश भर में बिखरे पड़े हैं। सौभाग्य से उनमें से अधिकांश हस्तलिखित आलेखों के रूप में भण्डारों में आज भी सुरक्षित हैं। ये ग्रन्थ सौराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक और उत्तर तथा पूर्व के अनेक स्थानों में पाये गये हैं। इन सबको एकत्र करना और आवश्यक अनुसंधान के बाद आधुनिक ढंग से उनके प्रकाशन की व्यवस्था करना एक आवश्यक कार्य है। जैन आचार्यों और विद्वानों की एक और विशेषता उनकी रचनाओं की व्यापकता है। प्रायः सभी की भाषा प्राकृत है, परन्तु उनकी साहित्यक परिधि महावीर स्वामी के उपदेश और धार्मिक विषयों के विवेचन तक ही सीमित नहीं। जैन श्रमणों ने लोकभाषा को साहित्य का वाहन बनाया था। उन युगों की देश की लोकभाषा प्राकृत थी। इसी कारण प्राकृत भाषा में विपुल साहित्य मिल रहा है, शिलालेख मिल रहे हैं, सिक्के मिल रहे हैं। सुनते हैं कि इस भाषा में छोटे बड़े प्रत्येक विषय को मिला कर एक हजार के करीब ग्रन्थ हैं, जिनमें महावीर के उपदेश सम्बन्धी धार्मिक ग्रन्थसूत्र, नियुक्तियाँ, चूर्णियाँ, भाष्य, महाभाष्य, टीका आदि के 300 से 350 ग्रन्थ हैं। धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त लौकिक साहित्य भी, जैसे काव्य, छन्द, नाटक, कोश, गणित, मुद्रा-शास्त्र, रत्नपरीक्षा शास्त्र, ऋतु विज्ञान, जातीय विज्ञान, भूगोल, ज्योतिष, शिल्प-कहानियाँ, चरित्र, कथानक, प्रवासकथा आदि मानव जीवन से संबंध रखनेवाले सभी विषयों पर उत्तम ग्रन्थ जैन श्रमणों ने प्राकृत भाषा में लिखे हैं, और जो भी उन्होंने लिखा, बड़ी बारीक छानबीन के साथ विस्तार से लिखा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy