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________________ 6 स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ इस व्यापकता के कारण जैन साहित्य अथवा प्राकृत साहित्य का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। जैसा मैंने अभी कहा, ईसा से पूर्व सातवीं शताब्दी से लेकर इधर आठवीं शताब्दी तक प्राकृत में ग्रन्थों की रचना होती रही। हमारे इतिहास के इस महत्त्वपूर्ण काल में देश के विभिन्न भागों में जो राजनीतिक तथा सामाजिक स्थिति रही है, उस पर इस साहित्य द्वारा काफी प्रकाश पड़ता है। प्राकृत साहित्य का अधिकांश भाग अभी भी इतिहास के साधारण विद्यार्थी की पहुँच से बाहर है और हमारी साहित्य-संबंधी धारणाएँ प्राकृत साहित्य में दिये गये तथ्यों और विवरणों से अभी प्रकाशित नहीं हो पायी हैं। इस बात से आशा होती है कि भारत के साहित्य में जो सबसे अधिक अन्धकारमय काल है, अर्थात् जिस काल के संबंध में हमारी जानकारी बहुत कम है अथवा अधिकतर अटकल पर आधारित है, उस काल के संबंध में प्राकृत साहित्य से प्रकाश मिले। सम्भव है, इससे हमारे इतिहास की अनेक गुत्थियाँ सुलझ जायें और टूटी हुई श्रृंखलाएँ जुड़ जायें। इन सभी दृष्टियों से प्राकृत साहित्य की खोज तथा अवलोकन और प्राकृत ग्रन्थों के प्रकाशन का महत्त्व असाधारण है। भारतीय विद्वानों के अतिरिक्त डॉ० शूबिंग आदि विदेशी विद्वानों का भी यही मत है। उनका कहना है कि प्राकृत साहित्य का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किये बिना भारत के साहित्य का हमारा ज्ञान सदा अधूरा रहेगा। यदि स्वाधीन होने के बाद भी हम प्राकृत के लुप्त और विस्मृत प्राय ग्रन्थों की पूरी खोज कर, उन्हें साधारण ज्ञान की सरिता में न मिला सकें, तो यह आश्चर्य ही नहीं, लज्जा की बात होगी। भगवान् महावीर के सन्देश और उनके लौकिक जीवन के संबंध में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करने का भी हमारे लिए ही नहीं, समस्त संसार के लिए विशेष महत्त्व है। "अहिंसा परमो धर्मः" का सन्देश उनकी अनुभूति और तपश्चर्या का परिणाम था। महावीर के जीवन से मालूम होता है कि कठोर तपस्या करने के बाद भी वे शुष्क तापसी अथवा प्राणियों के हित-अहित से उदासीन नहीं हो गये थे। दूसरों के प्रति उनकी आत्मा स्नेहार्द्र और सहृदय रही। इसी सहानुभूतिपूर्ण स्वभाव के कारण जीवों के सुख-दुःख के बारे में उन्होंने गहराई से सोचा है और इस विषय में सोचते हुए ही वे वनस्पति के जीवों तक पहुँचे हैं। उनकी सूक्ष्म दृष्टि और बहुमूल्य अनुभव जिसके आधार पर वे अहिंसा के आदर्श पर पहुँचे, असाधारण जिज्ञासा का ही विषय न रह कर वैज्ञानिक अध्ययन तथा अनुसंधान का विषय होना चाहिए। भगवान् महावीर के जीवन से एक और तत्त्व हमें ग्रहण करना चाहिए वह है उनकी समन्वय-दृष्टि । अपने विचारों को उदार रख दूसरों को सहानुभूतिपूर्वक उनकी दृष्टि से समझने की क्षमता और अपने में मिलाने की शक्ति ही समन्वय दृष्टि है। महावीर की समन्वयात्मक दृष्टि भारतीय धर्म तथा दर्शनशास्त्र के लिए बहुत बड़ी देन है। इस सिद्धान्त की गहराई और इसके उच्च व्यावहारिक पहलू को हम महावीर के जीवन में ही समझ सकते हैं। इस सभी कारणों से मैं समझता हूँ कि वैशाली में प्राकृत अनुसंधानशाला की स्थापना बहुत ही सामयिक है। मैं आशा करता हूँ कि यहाँ जो अध्ययन होगा और जो खोज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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