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________________ स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ अत्यन्त आवश्यक है। गत तीस-चालीस वर्षों से ही इतिहासवेत्ताओं और जैन आचार्यों का इस ओर विशेष ध्यान गया है, परन्तु यह कार्य नियमित रूप से हाल ही में आरम्भ किया जा सका है। प्राकृत अनुसंधानशाला में जो उच्चकोटि का कार्य और अनुसंधान किया जायेगा, उससे प्राकृत ग्रन्थ परिषद् के कार्य को पथ-प्रदर्शन और हर प्रकार की सहायता प्राप्त होगी। आज वैशाली में बैठकर यह कल्पना करना भी कठिन जान पड़ता है कि ढाई हजार वर्ष पहले यह नगरी एक सम्पन्न और प्रभावशाली गणराज्य की राजधानी थी। विभिन्न भाषाओं में लिखे ग्रन्थों, स्तूपों आदि पर अंकित शिलालेखों से ही इस धारणा की पुष्टि नहीं होती, बल्कि धीरे-धीरे जैसे लुप्त ग्रन्थों की खोज होती जा रही है, इस संबंध में हमारी जानकारी में वृद्धि होती जा रही है। वैशाली जो भगवान् महावीर की जन्मभूमि थी और सदियों तक उनके मतावलम्बियों तथा अनुयायियों की धार्मिक और साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र रही, आज जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हमारे सामने है। परन्तु ढाई हजार वर्ष की उथल-पुथल के बाद भारत में फिर गणराज्य की स्थापना हुई है। आज इस यशस्वी भूमि के रजकण से हमें उत्प्रेरणा मिलती है। यह स्वाभाविक है कि प्राचीन इतिहास के जानकार वैशाली के प्रति श्रद्धांजलि भेंट करें और उन ऊंचे आदर्शों को जीवन में फिर से उतारने का प्रयत्न करें, जो बौद्ध तथा जैन विचारधारा के अनुसार, वैशाली के नागरिकों का पथ-प्रदर्शन करते थे। वैशाली जिस राज्य की राजधानी थी, वह यद्यपि देश भर में प्रभावशाली था, पर बहुत बड़ा राज्य नहीं था। प्राचीन काल में वह देश के हृदय के समान था। यहाँ के गणराज्य की ख्याति चारों ओर फैली हुई थी और यहाँ की परम्पराओं तथा विचारधारा ने दूर स्थित प्रदेशों को प्रभावित किया था। यहाँ के जैन और बौद्ध आचार्य जो अपनी भ्रमणशीलता के लिए विख्यात थे, देश के सभी भागों में घूमते थे और बुद्ध तथा महावीर के उपदेशों का प्रचार करते थे। भारत में ही नहीं, तिब्बत, नेपाल, ईरान, इण्डोनेशिया, अफगानिस्तान आदि एशिया के दूसरे देशों में भी इन लोगों का सम्पर्क था। उस समय देश में संस्कृत के अतिरिक्त दो भाषाएँ प्रचलित थीं- पाली और प्राकृत। महात्मा बुद्ध और उनके अनुयायियों ने अधिकतर पाली को प्रश्रय दिया और महावीर स्वामी तथा उनके मतावलम्बियों ने प्राकृत को अपनाया। इन दोनों मतों के आचार्यों और अनुयायियों ने कालान्तर में जो कुछ लिखा, वह अधिकतर पाली और प्राकृत में ही उपलब्ध है। सौभाग्य से पाली भाषा के क्षेत्र में बहुत कुछ काम हो चुका है जिसके फलस्वरूप प्राचीन-कालीन भारत की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति के संबंध में हमारी जानकारी में काफी वृद्धि हुई है। सौ वर्ष के करीब हुए जब भारतीय और विदेशी विद्वानों के सहयोग से पाली ग्रन्थ-परिषद् ने अनेक ग्रन्थों का सम्पादन कर उन्हें प्रकाशित किया है। किन्तु दुर्भाग्यवश प्राकृत के संबंध में यह बात नहीं कही जा सकती। किन्हीं कारणों से हमारा ध्यान उस ओर अधिक नहीं गया है और विदेशी विद्वानों ने भी प्राकृत साहित्य के महत्त्व को बीसवीं सदी के आरम्भ में ही समझा है। यह बताने की मैं आवश्यकता नहीं समझता कि किन कारणों से प्राकृत के क्षेत्र में उतना कार्य नहीं किया जा सका, जितना पाली साहित्य के संबंध में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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