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श्रमणाचार विषयक ग्रन्थों में मुनि आर्यिकाओं की वन्दना - विधि
क्रिया के अनन्तर वन्दना करनी चाहिये 23 |
आचार्य और शिष्य में तथा दोष संयमियों में परस्पर वन्दना और प्रतिवन्दना की विधि क्या हो ? इसका विवेचन करते हुये पण्डित प्रवर आशाधर जी लिखते हैं कि- सभी नित्य और नैमित्तिक कृतिकर्म के प्रारम्भ में शिष्य को आचार्य की वन्दना करनी चाहिये और उसके उत्तर में आचार्य को शिष्य की वन्दना करनी चाहिये। इसके सिवाय मार्ग में अन्य यतियों को देखने पर परस्पर में वन्दना - प्रतिवन्दना करनी चाहिये। साथ ही मल-त्याग के पश्चात् तथा कार्योत्सर्ग के पश्चात् यतियों को देखने पर परस्पर में वन्दना - प्रतिवन्दना करनी चाहिये । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि खड़े होकर दोनों कुहनियों को पेट के ऊपर रखकर तथा दोनों हाथों को मुकुलित करना वन्दना मुद्रा है तथा इसी स्थिति में दोनों हाथों की अंगुलियों को परस्पर में मिलाना मुक्ताशुक्ति मुद्रा है 25 | आवश्यक करने वाले को वन्दना करते समय वन्दना मुद्रा का प्रयोग करना चाहिये 2 |
विजयोदया टीका में आचार्य अपराजितसूरि ने जिन दश कल्पों का उल्लेख किया है, उनमें सातवें कल्प का विवेचन करते हुए वे कहते हैं कि- चिरकाल से दीक्षित और पाँच महाव्रतों की धारी आर्यिका से तत्काल दीक्षित पुरूष भी ज्येष्ठ होता है। इस प्रकार पुरुष की ज्येष्ठता सातवाँ स्थिति कल्प है। पुरुषत्व कहते हैं संग्रह, उपकार और रक्षा करने में समर्थ होना। धर्म पुरुष के द्वारा कहा गया है इसलिये पुरुष की ज्येष्ठता है। इसलिये सब आर्यिकाओं को साधु की विनय करनी चाहिये । यतः स्त्रियाँ लघु होती हैं, पर के द्वारा प्रार्थना किये जाने योग्य होती हैं। दूसरों से अपनी रक्षा की अपेक्षा करती हैं। पुरुष ऐसे नहीं होते इसलिये पुरुष की ज्येष्ठता है। कहा भी है- यतः स्त्री लघु होती है, दूसरों के द्वारा प्रसाध्य होती है, प्रार्थनीय होती है, डरपोक होती है, अरक्षणीय होती है, इसलिये पुरुष ज्येष्ठ है।
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थी हु लघुसिंगा परप्पसज्झा य पच्छणिज्झाय । भीरू अरक्खणज्जेत्ति तेण पुरिसो भवदि जेट्ठो । । 27
प्रात:कालीन देववन्दना के पश्चात् आचार्य आदि की वन्दना करने की विधि का उल्लेख करते हुए पं. आशाधर जी लिखते हैं कि- साधु को गवासन से बैठकर लघु सिद्ध भक्ति और लघु आचार्य भक्ति से आचार्य की वन्दना करनी चाहिये । यदि आचार्य सिद्धान्त के ज्ञाता हों तो लघु सिद्ध भक्ति, श्रुतभक्ति और आचार्य भक्ति से उनकी वन्दना करनी चाहिये तथा आचार्य से अन्य साधुओं की वन्दना आचार्य भक्ति के बिना सिद्धभक्ति से करनी चाहिये, किन्तु यदि साधु सिद्धान्त के वेत्ता हों तो सिद्धभक्ति और श्रुतभक्ति पूर्वक उनकी वन्दना करनी चाहिये 28 |
दूसरों से असाधारण गुणों से युक्त जो साधु परमार्थ से जगत् को संतृप्त करते हैं, उन दीक्षा में ज्येष्ठ अथवा इन्द्रादि के द्वारा पूज्य साधुओं की पूजा करने वाला इस लोक और परलोक में पूज्य होता है 29 ।
परस्पर वन्दना आदि के विषय में आचारसार में कहा है कि- ऐलक - क्षुल्लक परस्पर में 'इच्छामि' करते हैं। मुनियों को 'नमोऽस्तु' करते हैं और आर्यिकाओं को
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