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________________ 208 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ 4. जो मुनि-आचार्य पर्यकासन में सुखपूर्वक बैठा हो, उसे कृतिकर्म करे। 5. पूर्वाह्न एवं अपराह्न- इन दो कालों में करे। 6. दो अवनति से कृतिकर्म करे। सामायिक के प्रारम्भ और अन्त में तथा थोस्सामि दण्डक के प्रारम्भ और अनन्त में-इस प्रकार चार बार शिरोनतिपूर्वक कृतिकर्म करे। 8. सामायिक के प्रारम्भ में तीन और अन्त में तीन, इसी प्रकार चतुर्विंशतिस्तव के प्रारम्भ और अन्त में तीन-तीन- इस प्रकार कुल बारह आवों से कृतिकर्म करे। 9. बत्तीस दोषों7 से रहित होकर कृतिकर्म करे। पण्डितप्रवर आशाधर ने निक्षेपों की अपेक्षा वन्दना के छः भेद किये हैं- नाम वन्दना, स्थापना वन्दना, द्रव्य वन्दना, काल वन्दना, क्षेत्र वन्दना और भाव वन्दना। अर्हन्त आदि में से किसी भी एक पूज्य पुरुष का नाम उच्चारण अथवा स्तवन आदि नाम वन्दना है। जिन प्रतिमा का स्तवन स्थापना वन्दना है। जिन भगवान के शरीर का स्तवन द्रव्य वन्दना है, जिस भूमि में कोई कल्याणक हुआ हो, उस भूमि का स्तवन क्षेत्र-वन्दना है और भगवान के गुणों का स्तवन भाव-वन्दना है। संसार से भयभीत, निरालसी श्रमण आचार्य, प्रवर्तक, उपाध्याय, गणी, स्थविर तथा रत्नत्रय के विशेष रूप से आराधकों की मान रहित होकर वन्दना करनी चाहिये। यदि आचार्य देशान्तर में हों तो मुनियों को कर्मकाण्ड में कही गयी विधि के अनुसार प्रवर्तक आदि की वन्दना करनी चाहिये। यदि वे भी दूर हों तो मुनियों को जो अपने से दीक्षा में ज्येष्ठ मुनि हों उनकी वन्दना करनी चाहिए। देश संयमी श्रावकों और मुनियों को किसकी वन्दना नहीं करनी चाहिये? इसका निर्देश देते हुए पण्डितप्रवर आशाधर जी लिखते हैं कि- मुनि की तो बात ही क्या, यथोक्त अनुष्ठान करते हुए श्रावक को भी माता-पिता, शिक्षा गुरु, दीक्षा गुरु और राजा यदि असंयमी हों तो उनकी वन्दना नहीं करनी चाहिये। तथा तापस आदि और पार्श्वस्थ आदि कुलिङ्गियों की व रुद्र आदि और शासन देवता आदि भूदेवों की भी वन्दना नहीं करनी चाहिए। और श्रावक यदि शास्त्रोपदेश का अधिकारी भी हो तो भी उसकी वन्दना मुनि को नहीं करनी चाहिये। संयमी साधु को संयमी साध की वन्दना भी वन्दना के योग्य काल में जब वन्दनीय साधु अच्छी तरह से बैठे हों, तब उनकी अनुज्ञा लेकर करनी चाहिये। यदि वन्दनीय साधु किसी व्याकुलता में हों, या भोजन करते हों, या मल-मूत्र त्याग करते हों, या असावधान हों, या अपनी ओर उन्मुख न हों तो वन्दना नहीं करनी चाहिये। वन्दना के काल के सन्दर्भ में आशाधर जी लिखते हैं कि- प्रात:काल में प्रात:कालीन अनुष्ठान करने के पश्चात् क्रियाकाण्ड में कहे हुये विधान के अनुसार आचार्य आदि की वन्दना करनी चाहिये। मध्याह्न में देव वन्दना के पश्चात् वन्दना करनी चाहिये। और सन्ध्या के समय प्रतिक्रमण करके वन्दना करनी चाहिये। साथ ही प्रत्येक नैमित्तिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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