________________
श्रमणाचार विषयक ग्रन्थों में मुनि-आर्यिकाओं की वन्दना-विधि
207
स्वर्गावतरणजन्मनिष्क्रमणकेवलज्ञानोत्पत्ति-परिनिर्वाणादीति कल्याणादीनीनि।
आगे वे लिखते हैं कि
विणओ मोक्खद्दारं विणयादो संजमो तवो णाणं।
विणएणा राहिज्जदि आइरियो सव्वसंघो य"। अर्थात् विनय मोक्ष का द्वार है। विनय से संयम, तप और ज्ञान की प्राप्ति होती है। विनय से आचार्य और सर्वसंघ की आराधना होती है।
मोक्षमार्ग में कार्यकारी ऐसी विनय को मुनिचर्या का अनिवार्य अंग स्वीकार किया गया है। यतः विनय अन्तरंग तपों में परिगणित है, अत: जिस किसी के सामने अवमाननापूर्वक अथवा प्रमादपूर्वक शिर झुका देना विनय तप नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि यह विनय तप भी मुनिचर्या का अंग है। इतना ही नहीं, अपितु मुनियों के जिन अट्ठाइस मूलगुणों को स्वीकार किया गया है, उनमें षडावश्यकों के अन्तर्गत वन्दना तृतीय आवश्यक मलगण है। इसमें मनि मन, वचन और काय से तीर्थकरादि एवं शिक्षा-दीक्षा-प्रदाता गुरुजनों/आचार्यों के प्रति बहुमान प्रकट करता है।
___ अरहन्त प्रतिमा, सिद्ध प्रतिमा, तपोगुरु, श्रुतगुरु, गुणगुरु, दीक्षागुरु और दीक्षा में ज्येष्ठ मुनि को मन, वचन की शुद्धि सहित कार्योत्सर्गपूर्वक सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति तथा गुरुभक्ति करते हुए प्रणाम करना वन्दना है। इसे कृतिकर्म भी कहा जाता है। जिस अक्षरसमूह से या परिणाम से या क्रिया से आठों कर्मों का कर्तन या छेदन होता है उसे कृतिकर्म कहते हैं अर्थात् पाप के विनाश के उपाय का नाम कृतिकर्म है।
मूलाचारकार ने कृतिकर्म पर विभिन्न दृष्टियों से विचार किया है। तथा इस सन्दर्भ में निम्न नौ प्रश्न उपस्थित किये हैं।5
1. कृतिकर्म कौन करे? 2. किसका करे? 3. किस विधि से करे? 4. किस अवस्था में करे? 5. कितनी बार करे? 6. कितनी अवनतियों से करे? अर्थात् कृतिकर्म करते समय कितने बार
झुकना चाहिये? 7. कितने बार मस्तक पर हाथ रखकर करे? 8. कितने आवर्तों से शुद्ध होता है?
9. वह कृतिकर्म कितने दोष रहित करे? इन नौ प्रश्नों का संक्षिप्त समाधान इस प्रकार है16
1. संयमी व्यक्ति कृतिकर्म का अधिकारी है। 2. अरहन्त और सिद्ध की प्रतिमा तथा तपगुरु, श्रुतगुरु और गुणगुरु तथा
जो दीक्षा में ज्येष्ठ है उसका कतिकर्म करे। 3. पर्यकासन अथवा कायोत्सर्ग मुद्रा में कृतिकर्म करना चाहिए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org