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श्रमणाचार विषयक ग्रन्थों में मुनि-आर्यिकाओं की
वन्दना-विधि
डॉ. कमलेश कुमार जैन*
मोक्षमार्ग में विनय का विशिष्ट स्थान है। इसीलिये आचार्यों ने भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से इसे ग्रहण करने का प्रयास किया है। षोडशकारण भावनाओं के अन्तर्गत द्वितीय भावना विनयसम्पन्नता है। और इसके सम्बन्ध में कहा गया है किविनयसम्पन्नता एक भी होकर सोलह अवयवों से सहित है, अतः उस एक ही विनयसम्पन्नता से मनुष्य तीर्थकर नामकर्म को बाँधते हैं।
इसी प्रकार दश धर्मों के अन्तर्गत मार्दवधर्म को द्वितीय धर्म के रूप में अर्थात् विनम्रता के भाव को अंगीकार करने एवं अहंकार को त्यागने का उपदेश दिया गया है।
मुनि के लिये अवश्य करणीय द्वादश तपों में भी अन्तरंग रूप जो छः तप कहे गये हैं, उनमें द्वितीय तप के रूप में विनय तप को स्वीकार किया गया है। और उसके ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार-ये चार विनय के भेद कहे गये हैं। किन्हीं-किन्हीं आचार्यों ने उक्त चार के अतिरिक्त तपोविनय को भी स्वीकार किया है।।
मूलाचार में विनय करने के पाँच कारणों का उल्लेख है, जिनमें लोक के अनुकूल प्रवृत्ति को लोकानुवृत्ति नामक प्रथम विनय, प्रयोजन विशेष के वशीभूत होकर की गई विनय को द्वितीय अर्थविनय, कामानुष्ठान हेतु की गई विनय को कामतंत्र नामक तृतीय विनय, भय के कारण की गई विनय को भय नामक चतुर्थ विनय, और मोक्षप्राप्ति हेतु की गई विनय को मोक्ष नामक पंचम विनय कहा है। आगे विनय के इन पाँच भेदों के स्वरूप आदि का भी विवेचन मूलाचार में विस्तार से किया गया है। पुनः मोक्ष विनय के पूर्वोक्त दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और उपचार- ये पाँच भेद कहे हैं। मोक्ष मार्ग में इन्हीं पाँच विनयों का महत्व स्वीकार किया गया है, क्योंकि विनय धर्म का मूल है।
मलाचार में कहा गया है कि- विनय से रहित व्यक्ति की सम्पूर्ण शिक्षा निरर्थक है। शिक्षा का फल विनय है और विनय का फल समस्त कल्याण है।
आचार्य वसुनन्दी के अनुसार यहाँ समस्त कल्याण का तात्पर्य पञ्च कल्याणकों से है। वे लिखते हैं कि
विनयफलं सर्वकल्याणान्यभ्युदयनि:श्रेयससुखानि। अथवा * प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, जैन-बौद्धदर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।
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