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आगम और आधुनिक परिप्रेक्ष्य में श्रमणाचार
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अंगीकार कर यहाँ आचरण करना चाहिए। श्रमण जीवन सर्वश्रेष्ठ होता है। गृहस्थ व्रतों का पालन करता हुआ प्रतिपल/प्रतिक्षण यही चिन्तन करता है कि वह दिन कब आयेगा जिस दिन मैं श्रमणधर्म को ग्रहण कर अपने जीवन को सार्थक करूँगा। साधना के अनुकूल वातावरण पाने के लिए गृहवास का त्याग और वेष परिवर्तन करना आवश्यक है। आन्तरिक जीवन की पूर्ण शुद्धि गृहस्थ जीवन में संभव नहीं है। आध्यात्मिक समुत्कर्ष के लिए बाह्य वातावरण भी अपेक्षित है। यदि साधक को अनुकूल वातावरण नहीं मिलता है तो मार्ग में ही इधर-उधर भटक जाता है। अतएव योग्य वातावरण आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है।
सन्दर्भः 1. आपिच्छ बंधुवग्गं, विमोचिदो गुरुकलत्त - पुत्तेहिं।
आसिज्ज णाण-दसण-चरित्तवीरियाया। समणं गणिं गुणड्ढं कुलरूववयोविसिट्ठमिट्ठदरं। समणेहिं तंपि पणदो पंडिच्छ मंचेदि अणुगहिदो।। प्रव. 202 एवं 205 भगवती आराधना-71 प्रवचनसार - 205-206 अहवा चारित्ताराहणाए आराहियं हवइ सव्वं। आराहणाए सेसस्स चारित्ताराहणा भज्जा।।8।। भ.आ. इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभावर्या यथा मृगाः। वनाविंशत्युपग्रामं कलौ कष्टं तपस्विनः।।197।। वरं गार्हस्थ्यमेवाद्य तपसो भाविजन्मनः। श्व: स्त्रीकटाक्षलुण्टाकलोप्यवैराग्यसम्पदः।।198।। - आत्मानुशासन
धवला 13/5, 4.26 15.20/66 7. भगवती आराधना - 228, 229, 663, 635
प्रवचनसार - 263
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