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________________ 204 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ रागद्वेषादि विकल्पजालों से रहित स्वाभाविक शुद्धात्मा का अभेदज्ञान अर्थात् स्वानुभवरूप ज्ञान है, उसमें भावना करनी योग्य है। इस प्रकार की शास्त्राज्ञा का उल्लंघन कर मंत्र तंत्र विद्या में ही समय लगाया जा रहा है। इसके अलावा निर्माण योजनाओं को प्राथमिकता दी जा रही है। सामाजिक चिन्तन शास्त्राध्ययन आदि का स्थान वास्तुविद्या और गृहस्थों के साथ की वार्ता लेती जा रही है। साधु नगरों के मध्य आश्रम या निवास योग्य भवन आदि के निर्माण की प्रेरणा ही समाज को नहीं दे रहे हैं अपितु गहरी रुचि लेकर उस कार्य को पूरा करा रहे हैं जबकि आत्मानुशासन में साधुओं द्वारा वन में निवास को छोड़कर ग्राम अथवा नगर के समीप रहने पर खेद प्रकट करते हुए कहा है- "जिस प्रकार मुगादि रात्रि के समय सिंहादि के भय से गांव के निकट आ जाते हैं, उसी प्रकार इस कलिकाल में मुनिजन वन को छोड़कर गांवों के समीप रहने लगे हैं, यह कष्टकर है। अब यदि ग्रामादि में रहने से कालान्तर में स्त्रियों के कटाक्ष रूपी लुटेरों के द्वारा साधु का तप हरण कर लिया जाय तो साधु चर्या की अपेक्षा गृहस्थ जीवन ही श्रेष्ठ है"। अब यहाँ तक सुनने और देखने में आ रहा है कि ख्याति लाभ पूजा की चाह में कोई-कोई मुनि श्रेष्ठ चारित्रधारी की निन्दा भी करते हैं अपनी प्रशंसा कर श्रावकों को अपना भक्त बनाने में लगे हुए हैं। अपने मुनि स्वरूप की मर्यादा का पालन नहीं कर रहे हैं। इस प्रवृत्ति वालों के विषय में आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने कहा है कि जो मुनि जिन शासन में स्थित उत्तम श्रमण को देखकर द्वेष भाव से उसकी बुराई करता है तथा विनयादि क्रियाओं में अनुमति नहीं करता है, वह निश्चय से नष्ट चारित्र है। ___इन आगम वाक्यों को जानकर मुनिराजों को दोष पूर्ण क्रियाओं का परित्याग कर श्रमणाचार को आगमानुसार ही पालन करना श्रेष्ठ है उसी से आत्म प्रभावना के साथ जिनधर्म प्रभावना होगी। वर्तमान में साधुओं की स्थायी निवास की प्रवृत्ति धर्म और आगम के अपलाप का निमित्त बनती जा रही है। यद्यपि वीतरागी साधकों के लिए स्थान का कोई महत्व नहीं होता है । तथापि उन वसतिकाओं का निषेध किया गया है जो वसतिका ध्यान एवं अध्ययन में बाधाकारक हो, मोहोत्पादक हों, कुशील संसक्त (शराबी, जुआरि, चोर, वेश्या, नृत्यशाला आदि से युक्त) हों, स्त्रियों एवं अन्य जीवन-जन्तुओं की बाधा से युक्त हों, देवी-देवताओं के मन्दिरों से युक्त हों, राजमार्ग, बगीचा, जलाशय आदि सामाजिक स्थानों के समीप हों, तेली, कुम्हार, धोबी, नट आदि के घरों के पास हो। साधुओं के लिए उक्त स्थान अयोग्य बताये गये हैं। इसका तात्पर्य है कि साधुओं शान्त स्थान में ही रहना चाहिए तभी उनके द्वारा ध्यान साधना करना सम्भव है। वर्तमान में समय को दोष दिया जाता है जो उचित नहीं है। आज भी मोक्षमार्ग है। लौकान्तिक और सौधर्मेन्द्र आदि पदों को अगली पर्याय में धारण करने की योग्यता वाले साधक इस पंचम काल में यहाँ होते हैं और वर्तमान साधकों में साधना द्वारा चतुर्थकालीन साधकों से भी अधिक कर्म निर्जरा की सामर्थ्य है। अतः साधकों को आधुनिक वातावरण से प्रभावित न होकर आगम में प्रतिपादित श्रमणधर्म को शान्ति तथा कल्याण का मार्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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