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________________ आगम और आधुनिक परिप्रेक्ष्य में श्रमणाचार 203 की गिरफ्त में फंस गये हैं। तृष्णा आकाश की तरह अनन्त है, वह कभी पूर्ण नहीं होती है। जो श्रमण के लिए हानिप्रद ही नहीं अपितु श्रमण संस्कृति विघातक है। आधुनिक समय में साधओं में एक बदलाव आया है जिससे बीस वर्ष पुरानी साधुओं की चर्या आज बिल्कुल बदली हुई दिखती है। आगम की आज्ञा का पालन करते हुए पूर्व में साधु वन / जिनमन्दिर तीर्थक्षेत्र / धर्मशाला आदि स्थानों पर रहकर धर्माराधना में तत्पर रहते थे। वर्तमान में भी आगम की आज्ञा का पालन करने वाले साधक प्राचीन ऋषियों-मुनियों की भाँति वसतिकाओं में रहते हैं। आहार चर्या के लिए ही श्रावकों के घरों पर जाते हैं। निर्दोष चर्या का पालन करते हैं किन्तु कुछ साधुओं के द्वारा महानगरों में चार्तुमास या धार्मिक आयोजनों के निमित्त प्रवेश किया जाता है और वहाँ उन्हें मन्दिर/धर्मशालाएँ निवास के लिए उपयुक्त नहीं लगती हैं अत ठहरते हैं। कोठी की एक मंजिल में गृहस्थ और दूसरी में साधु निवास करते हैं। परस्पर में रात-दिन वार्ता चलती रहती है। इसी से चर्या में बदलाव आ जाता है। श्रावकों के लिए मंत्र औषधि आदि बताकर/देकर उनसे आदान-प्रदान तक व्यवहार शुरू हो जाता है। साधु की करणीय शुद्ध भावना से बहुत दूरी हो जाती है। यंत्र मंत्र तंत्र विद्याओं की प्रवृत्ति बढ़ जाती है जिसका आचार्यों ने सर्वथा निषेध किया है और साधु को गृहस्थों से दूर रहकर शुद्धात्मा की भावना में रत रहने को कहा गया है। श्रमण को अपने धर्म का विधिवत् पालन करने हेतु लौकिक जनों के संसर्ग को नहीं रखना चाहिए। लौकिक कार्यों में रुचि रखने वालों की संयम साधना निरर्थक हो जाती है और उन्हें श्रमणधर्म का पालक ही नहीं माना जाता है णिग्गंथं पव्वइदो वट्टदि जदि एहि गेहि कम्मेहि। सो लोगिगोत्ति भणिदो संजमतवसंपजुत्तो वि।।691 -प्र0सा0 निर्ग्रन्थ दीक्षा का धारक होकर मुनि यदि इस लोक सम्बन्धी ज्योतिष-वैद्यक तथा तंत्र-मंत्र आदि कार्यों में प्रवर्तता है तो वह संयम और तप से युक्त होकर भी लौकिक कहा गया है। आचार्य जयसेन स्वामी ने भी शद्धात्मा के अभेदज्ञान की भावना करने की प्रेरणा देते हुए कहा है कि ज्योतिष मंत्र तंत्र का आश्रय परमात्मा की भावना का नाश करने वाला है- "ज्योतिष्क मंत्रवाद रससिद्धयादीनि यानि खण्ड विज्ञानानि मूढजीवानां चिच्चमत्कारकारणानि परमात्मभावनाविनाशकानि च तत्राग्रहं त्यक्त्वा जगत्त्रयकालत्रयसकलवस्तुयुगपत्प्रकाशकमविनश्वरमखण्डैकप्रतिभासरूपं सर्वज्ञशब्दवाच्यं यत्केवलज्ञानं तस्यैवोत्पत्ति कारणभूतं यत्समस्तरागादिविकल्पजालेन रहितं सहजशुद्धरात्मनोऽभेदज्ञानं तत्र भावना कर्त्तव्या इति"। ज्योतिष, मंत्र, वाद, रस सिद्धि आदि के जो खण्डज्ञान हैं तथा जो मूढ़ जीवों के चित्त में चमत्कार करने के कारण हैं और जो परमात्मा की भावना के नाश करने वाले हैं उन सर्व ज्ञानों में आग्रह या हठ त्याग करके तीन जगत् व तीन काल की सर्ववस्तुओं को एक समय में प्रकाश करने वाले अविनाशी तथा अखण्ड और एक रूप से उद्योत रूप तथा सर्वज्ञत्व शब्द से कहने योग्य जो केवलज्ञान है, उसकी ही उत्पत्ति का कारण जो सर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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