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________________ 202 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ चरदि णिवद्धो णिच्वं समणो णाणम्मि दंसणमुहम्मि। चर्या का परिपालन करें तो मोक्षमार्ग की सच्ची प्रभावना होती रहेगी। श्रमण का मूल उद्देश्य विभाव से हटकर स्वभाव में रमण करना है। परभाव से हटकर स्वभाव में आना प्रदर्शन नहीं आत्मदर्शन है। लौकिक कार्यों के लिए दीक्षा का विधान नहीं है अपितु केवल आत्मविकास के लिए प्रवज्या ग्रहण करने का विधान आचार्यों ने बताया है स्याद्वाद-कौशल सुनिश्चलसंयमाभ्यां यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्तः। ज्ञानक्रियानय परस्पर तीव्र मैत्री पात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमां स एक।। - समयसार कलश, 267 - स्याद्वाद की कुशलता और निश्चल संयम के द्वारा जो मुनि निरंतर अपने में उपयोग लगाकर आत्मा का अनुभव करता है तथा ज्ञान नय और क्रिया (आचरण) नय की परस्पर अटूट मैत्री ने जिसे पात्र बनाया है, वह इस उत्कृष्ट शुद्धोपयोग, शुक्लध्यान अथवा निर्विकल्प अनुभव का आश्रय लेता है। अर्थात् आत्म विकास को प्राप्त होता है। श्रमण के लिए बाह्य शौच की अपेक्षा आध्यात्मिक शुद्धि का विशेष महत्व बताया गया है। इसमें पंचमुष्टि लोंच, जीवन की अन्तिम साधना, पादोपगमन आदि का उल्लेख है। साधना का परम बाधक तत्व आसक्ति है। आसक्ति से पतन अवश्यम्भावी है। विषय भोग नन्दीफल की तरह भले ही मधुर प्रतीत हों किन्तु वे जीवन को समाप्त करने वाले होते हैं। जिस श्रमण के आचार में निर्मलता होती है, वही विज्ञ है और आचार का सही रूप से पालन करने वाला है। जो भोगासक्त होता है, इन्द्रियों के अधीन होता है। उसकी वही स्थिति होती है जैसी सुन्दर हरी घास खाने वाले बकरे की होती है। संयमीवृत्ति-गोचरी, भ्रामरी, गर्तपूरणिका, अक्षम्रक्षण कही गई हैं, वह श्रावक के घर आहार लेता है दाता के द्वारा जो योग्य पदार्थ दिया जाता है उसे सन्तोष से ग्रहण करता है और दाता को न देखकर आहार को शोधता है। इस प्रकार आहार विहार चर्या में निपुण साधु प्रायः तपश्चरण में निरत रहते हैं और संवर निर्जरा द्वारा मोक्षमार्ग को प्रशस्त करते हैं अपराजितसूरि गाथा-7 की उत्थानिका में लिखते हैं- 'तपो निर्जरां मुक्तेरनुगुणां करोति सति चारित्रे संवरकारिणि नान्यथेति दर्शयति।' संवर को करने वाले चरित्र के होने पर ही तप मुक्ति के अनुकूल निर्जरा करता है। भगवती आराधना में ही यह स्पष्ट किया गया है कि वस्तुतः चारित्र ही एक आराधना है, इसी में ज्ञान, दर्शन और तप आराधित हो जाते हैं अन्य आराधनाओं के होने पर चारित्र आराधना भजनीय है अर्थात् होती है और नहीं भी'। इस प्रकार श्रमण को चारित्र पालन की मुख्यता दर्शायी गई है। साधुओं की चर्या आगम सम्मत ही श्रेष्ठ कही गयी है, वही मान्य भी है किन्तु सम्प्रति समाज के बीच रहने वाले कुछेक साधकों को क्रियाएं आगम से सर्वथा बाह्य हैं। आज अर्थयुग है इससे गृहस्थ का प्रभावित होना अलग बात है किन्तु साधु को तो अर्थ/धनादि से किसी भी रूप में प्रभावित नहीं होना चाहिए। अत्यन्त दु:ख का विषय है कि वर्तमान में कुछ मुनिजन धनादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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