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आगम और आधुनिक परिप्रेक्ष्य में श्रमणाचार
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मोक्षपाहुड - 80
णिग्गंथं मोहमुक्का बावीहपरिसहा जियकसाया। पावारंभं विमुक्का ते गहीया मोक्खमग्गम्मि || जो परिग्रह से रहित हैं। पुत्र, मित्र, स्त्री आदि के स्नेह से रहित हैं। 22 परीषहों को सहन करने वाले हैं। कषायों को जीतने वाले हैं तथा पाप और आरम्भ से दूर हैं। वे मोक्षमार्ग में अंगीकृत हैं।
श्रमण ही दुःखों से मुक्त हो पाते हैं। जैसा कि कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा हैएवं पणमिय सिद्धे जिणवरवसहे पुणो पुणो समणे । पडिवज्जदु साम्मणं जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं |120|| यदि दुःखों से मुक्त होने की इच्छा है तो बार-बार सिद्धों को, अर्हन्तों को तथा श्रमणों को नमस्कार करके यतिधर्म को अंगीकार करो।
प्रवचनसार
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आगम में कहा गया है कि साधु का द्रव्यलिंग या शरीर का चिह्न पांच विशेषणों सहित जानना चाहिए - परिग्रह रहित पूर्ण रूप से नग्न होता है, मस्तक और दाढ़ी मूंछों के शृंगार सम्बन्धी रागादि दोषों को हटाने के लिए मस्तक दाढ़ी और मूंछों के केशों के लोंच सहित, चैतन्य चमत्कार के विरोधी सर्व पाप योगों से रहित, ममता आरम्भ करने के भाव से रहित तथा उपयोग और ध्यान की शुद्धि सहित पर द्रव्य की अपेक्षा रहित मोक्ष का कारण रूप मुनिराज का भावलिंग होता है । भावलिंग ही मुक्ति का कारण है किन्तु भावलिंग द्रव्यलिंग के साथ होता है। जो एकदेश संयमी और असंयमी की द्रव्यलिंगी संज्ञा आगम है उससे अभिन्न शरीर की रचना और लिंग को ग्रहण किया है।
समाज के मध्य द्रव्यलिंग को ही मोक्षमार्गी स्वीकार कर लिया जाता है और उसको पूज्यता भी प्रदान की जाती है। समाज को भावलिंग को पहचानने की योग्यता नहीं होती है इसलिए समाज को द्रव्यलिंग को बहुमान देना उचित है। समाज तो मुनिलिंग के बाह्य उपकरणों को देखकर विनय करे यह आवश्यक है किन्तु साधु/मुनि को अपने परिणामों की संभाल करने का कर्त्तव्य है। यदि परिणामों के राग-द्वेष की स्थिति के साथ परिग्रह के प्रति चाह रहती है तो वह अप्रमत्त-प्रमत्त गुणस्थानों से गिरकर द्रव्यलिंगी हो जाता है। भावलिंग शून्य द्रव्यलिंग मात्र से कल्याण होने वाला नहीं है। साधु को अपने शरीर के आश्रय से रहने वाले रत्नत्रय की स्थिरता अवश्य रखनी चाहिए जैसा कि आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने कहा है
ण य होदि मोक्खमग्गो लिंगं जं देहणिम्ममा अरिहा । लिंगं मुत्तु दंसणणाण चरित्ताणि सेवते ।।
द्रव्यलिंग मात्र ही मोक्षमार्ग नहीं है अपितु उस लिंग/शरीर के आधार से रहने वाला जो रत्नत्रय है, उसी से मोक्ष प्राप्त होता है। अतः भाव सहित उस द्रव्यलिंग को स्वीकार कर उसके माध्यम से अभेद रत्नत्रय को प्राप्त कर उसमें स्थिरता प्राप्ति के लिए सदा प्रयासरत रहना चाहिए।
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रत्नत्रय की स्थिरता के लिए परिपूर्ण श्रमण होना अति आवश्यक है। प्रवचनसार में परिपूर्ण श्रमण के विषय में कहा गया है
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