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________________ 200 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ विषयाशावशातीतो निरारभ्भोऽपरिग्रहः। ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते।।10।। अर्थात जो इन्द्रियों की विषय-वासनाओं से अलिप्त हो. खेती. व्यापार, उद्योग तथा भोजनादि के आरम्भ-कार्यों से अलग रहता है, किसी भी प्रकार का रंचमात्र परिग्रह जिसके पास न हो, जो ज्ञानाभ्यास करने में तथा आत्मध्यान में लगा रहता हो, ऐसा तपस्वी साधु प्रशंसनीय है। दिगम्बर साधु की साधुता ही प्रशंसनीय क्यों है? इसके पीछे कारण यह है कि बाह्य परिग्रह परित्याग में वस्त्र का त्याग करना अति कठिन है। जैसा कि हिन्दी के एक कवि ने कहा भी है धन-मान माया त्यागना तो है बड़ा आसान, छोड़ना अपनी जमीं मंका भी है भले आसान। बन्धु बान्धव और नारी छोड़ सकता है मनुज पर वस्त्र तज होना दिगम्बर नहीं है आसान।। दिगम्बरत्व से आशय है मोह माया के साथ वस्त्र का त्याग करना। दिगम्बर साधु बाह्य पदार्थों में तो मुच्र्छा भाव रखता ही नहीं, वह तो शरीर में भी ममत्व नहीं रखता है। पञ्चेन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर 28 मल गुणों का सम्यकरीत्या पालन कर अपनी आत्मा को विशुद्ध करने में प्रयत्नवान् रहता है। मूलगुणों के पालन से शरीर पर आत्मविशुद्धि करना ही साधुओं का ध्येय होता है। मूलगुणों को बतलाते हुए दिगम्बराचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है वदसमिदिदियरोधो लोचो आवासयमचेलमण्हाणं। खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेयभत्तं च।। अर्थात् पञ्च महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) पञ्च समिति (ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग) पंचेन्द्रियरोध (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र) इन पांचों इन्द्रियों के वशीभूत नहीं होना। केशलुंचन, षड् आवश्यक (समताभाव, स्तुति, वन्दना, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग) अचेलकत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधावन, खड़े-खड़े भोजन करना और दिन में एक ही बार अन्य जल ग्रहण करना। ये अट्ठाईस मूलगुण श्रमणाचार की प्राथमिकता हैं। आगम के अनुसार इनका पालन करना साधु का अनिवार्य धर्म है। इनमें यत्किचित् दोष होने अर्थात् एक या दो मूलगुण में शिथिलता होने पर पुलाक आदि संज्ञाओं से अभिहित किया जाता है। पुलाक, वकुश, कुशील (कषायकुशील और प्रतिसेवनाकुशील) निग्रंथ और स्नातक सभी भेद भावलिंगी मुनिराज के ही हैं। हाँ मूलगुणों की उपेक्षा कर आरम्भ परिग्रह में लिप्त होने वाले साधु को मोक्षमार्ग में स्वीकार नहीं किया गया है जो आरम्भ परिग्रह से दूर है, अपनी चर्या का पालन करते हैं, वे ही मोक्षमार्ग में चलने वाले हैं, जैसा कि कहा भी गया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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